लालची राजा | LALCHI RAJA | Funny Kahani | Majedar Hindi Kahani | Comedy Story | Funny Stories

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हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” लालची राजा ” यह एक Funny Story है। अगर आपको Short Funny Stories, Comedy Funny Stories या Majedar Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।


बहुत समय पहले की बात है। तीन भिक्षुक हिमालय की चोटियों को पार करते हुए एक अनोखी और सुंदर नगरी में पहुँच गए।

गुरूजी, “ये नगरी देखने में बहुत ही सुंदर मालूम पड़ रही है।”

प्रेमपाल, “आपने बिल्कुल सही कहा, गुरूजी! इतनी सुंदर नगरी तो मैंने सिर्फ सपनों में देखी है।”

वीरपाल, “गुरूजी, भिक्षा माँगते-माँगते आप तो हमें हिमालय की चोटियों तक ले आए।

मुझे तो लग रहा था कि हम तीनों ठंड से हिमालय में ही जमकर रह जाएंगे।”

प्रेमपाल, “यह जरूर ईश्वर की ओर से हमारे लिए पुरस्कार है।”

गुरूजी, “प्रेमपाल, हम सिर्फ भिक्षुक ही नहीं, बल्कि मार्गदर्शक भी हैं। पहले जाकर हमें इस सुंदर नगरी को देखना चाहिए।”

गुरूजी, प्रेमपाल और वीरपाल को लेकर उस सुंदर नगरी में चले जाते हैं, जहाँ बहुत सुंदर-सुंदर घर बने होते हैं और वहाँ सभी व्यक्ति बस अपना काम करने में लीन होते हैं।

गुरूजी, “पता नहीं, मुझे इस नगरी में कुछ अजीब सा लग रहा है।”

प्रेमपाल, “ये कैसी बातें कर रहे हैं, गुरूजी? न जाने कितने दिन बाद हम तीनों को ठंड से राहत मिली है?

देखिए, कितनी ताजा हवा चल रही है और यहाँ धूप भी कितनी अच्छी निकल रही है?”

वीरपाल, “प्रेमपाल सही बोल रहा है, गुरूजी। मुझे लगता है कि हमें यहाँ किसी धर्मशाला में रहकर आराम करना चाहिए।”

गुरूजी, “वीरपाल, हम भिक्षुक हैं, कोई व्यापारी नहीं, जो धर्मशाला में बैठकर आराम करेंगे।

मैं वहाँ उस टीले पर जा रहा हूँ। तुम दोनों अलग-अलग दिशा में बंट जाओ और शाम तक मुझे पता करके बताओ कि इस नगरी में लोगों का स्वभाव कैसा है?

क्या यह नगरी कुछ दिन रुकने के काबिल है भी या नहीं?”

गुरूजी के आदेश पर प्रेमपाल और वीरपाल अलग-अलग दिशाओं में चले जाते हैं। वीरपाल नगरी में घूमने लगता है।

वीरपाल, “इस नगरी में तो बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजनों की महक आ रही है।

आहाहा… और मुझे भूख भी बहुत ज्यादा लग रही है। मुझे जरूर कोई भोजनालय तलाशना होगा।”

वीरपाल भोजनालय को तलाशने लगता है। अचानक उसकी नजर एक भोजनालय पर पड़ती है।

वीरपाल, “कुछ खाने को मिलेगा?”

भोजनालय का मालिक, “कौन हो तुम? इस नगरी में तुम्हारी आवाज मैं पहली बार सुन रहा हूँ।”

वीरपाल, “मैं एक भिक्षुक हूँ।”

भोजनालय का मालिक, “भिक्षुक? यह कौन होते हैं?”

वीरपाल, “जो भिक्षा माँगकर खाते हैं।”

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भोजनालय का मालिक, “समझ गया। तुम कोई काम-धंधा नहीं करते और माँगकर खाते हो।”

वीरपाल, “नहीं, आप मुझे गलत समझ रहे हैं। मेरा कहने का मतलब वह नहीं है।”

भोजनालय का मालिक, “तो फिर क्या मतलब है?”

वीरपाल, “आप हमें मार्गदर्शक कह सकते हैं, मार्ग दिखाने वाला।”

भोजनालय का मालिक, “तब तो तुम्हारे लिए यह सारा भोजन मुफ्त है। इसका मतलब, तुम देख सकते हो?”

वीरपाल, “देख सकते हो से क्या मतलब? क्या तुम नहीं देख सकते?”

भोजनालय का मालिक, “नहीं, सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि इस नगरी का कोई भी इंसान नहीं देख सकता।

तुम हमारे राजा से जाकर मिलो, वो तुम्हें बहुत सारा इनाम देंगे। इस नगरी में तुम किसी से भी कह देना कि तुम मार्गदर्शक हो,

वह तुम्हें मुफ्त में भोजन, कपड़े, मकान… यहाँ तक कि सुंदर कन्या से तुम्हारा विवाह भी करवा देंगे।”

वीरपाल, “अरे-अरे अरे! मज़ा आ गया, मज़ा आ गया। बिना भिक्षा के भोजन, कपड़ा, अच्छा घर…।

वाह वाह वाह वीरपाल! काश! संसार के सभी राज्य ऐसे ही हो जाएं।”

तभी उसकी नजर मिठाई की बड़ी सी दुकान पर पड़ती है।

जहाँ बहुत स्वादिष्ट मिठाइयाँ रखी होती हैं।

वीरपाल, “वहां पर बहुत स्वादिष्ट स्वादिष्ट भोजन मिलता है। अरे! ये मिठाई तो बहुत ही स्वादिष्ट मालूम पड़ रही है।”

दुकानदार, “ये मिठाई मेरी पत्नी ने अपने हाथों से बनाई है। मेरे हाथों की बनाई मिठाई इस नगरी में प्रसिद्ध है, भैया।”

वीरपाल, “क्या तुम मुझे मिठाई दे सकते हो?”

दुकानदार, “बिल्कुल दे सकता हूँ, अगर तुम्हारे पास इसे खरीदने के लिए मुद्राएँ हैं तो।”

वीरपाल, “शायद तुम मुझे जानते नहीं हो, मैं… मैं एक मार्गदर्शक हूँ।”

दुकानदार, “तो तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? तुम्हारे लिए तो यह सारी मिठाइयाँ मुफ्त की हैं।

जितनी मर्जी हो, उतनी ले जाओ, भैया। मगर याद रखना, शाम के समय राजमहल में जरूर आना, राजा तुम्हें ढेर सारा इनाम देगा।”

वीरपाल बहुत सी मिठाइयाँ लेकर सीधा उस ऊँचे टीले की ओर चला जाता है, जहाँ पर गुरूजी प्रेमपाल के साथ उसका ही इंतजार कर रहे होते हैं।

गुरूजी, “प्रेमपाल, अब तुम बताओ। तुम्हें यह नगरी कैसी लगी?”

प्रेमपाल, “गुरूजी, मुझे यह नगरी बहुत ही अजीब सी लगी। यहाँ के वासी अजीब-अजीब तरह की बातें कर रहे थे।

कई बार तो मुझे ऐसा लगा जैसे कि वे मुझे देख ही ना रहे हों।”

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गुरूजी, “क्या तुम्हें वहाँ पर किसी ने भिक्षा नहीं दी?”

प्रेमपाल, “मैंने जिस किसी से भी भिक्षा माँगी, उसने मुझे देने से मना कर दिया और साथ ही बहुत ज्यादा अपमानित भी किया।”

गुरूजी, “वीरपाल, अब तुम बताओ। तुम्हें नगरी कैसी लगी? क्या प्रेमपाल सही बोल रहा है?”

वीरपाल, “नहीं, गुरूजी। मुझे लगता है कि प्रेमपाल इस नगरी को समझ नहीं पाया। मैंने तो इतनी सुंदर नगरी कभी नहीं देखी, गुरूजी।”

गुरूजी, “मैं तुम्हारी बात का मतलब नहीं समझा।”

वीरपाल, “गुरूजी, मैंने भी भोजनालय से भिक्षा माँगी थी और उन्होंने मना कर दिया।

मगर जैसे ही मैंने बताया कि मैं एक मार्गदर्शक हूँ, उन्होंने मुझे सारा भोजन मुफ्त में खिला दिया।”

गुरूजी, “यह कैसी बात कर रहे हो तुम? तुम्हारे मार्गदर्शक बताने से उन्होंने तुम्हें भोजन मुफ्त में खिला दिया?”

वीरपाल, “यह तो कुछ भी नहीं, गुरूजी। उन्होंने यह भी कहा कि इस नगरी में तुम किसी से भी कह दो कि तुम एक मार्गदर्शक हो,

तो वे तुम्हें मुफ्त में कपड़े, भोजन, मकान सबकुछ देंगे। और हाँ गुरूजी, एक बात बताना तो मैं भूल ही गया… इस नगरी में जितने भी इंसान हैं, वे सब के सब अंधे हैं।”

गुरूजी, “हमें यहाँ से अभी और इसी वक्त वापस जाना होगा। यह नगरी हमारे लिए खतरों की नगरी है।”

वीरपाल, “ये कैसी बातें कर रहे हैं आप गुरूजी? यहाँ सब कुछ मुफ्त में मिल रहा है और आप हैं कि जाने की बातें कर रहे हैं?”

गुरूजी, “वीरपाल, पिछली बार तू अंधेर नगरी में फँस गया था, पर इस बार तू अंधों की नगरी में फँस जाएगा। मेरी बात मान, यहाँ से चलते हैं।”

वीरपाल, “मैं अब कहीं नहीं जाने वाला, गुरूजी हाँ। आपको जाना है तो आप जा सकते हैं। मैं तो अपना सारा जीवन यहीं व्यतीत करूँगा।”

इतना कहकर वीरपाल वहाँ से चला जाता है और एक पेड़ के नीचे जाकर अपने आप से बोलता है, “शाम के समय राजमहल में जाकर राजा के ढेर सारे इनाम लूँगा,

उसके बाद गुरूजी को दिखाऊंगा। तब उन्हें पता लगेगा कि वीरपाल मूर्ख नहीं है।”

शाम के समय वीरपाल महल चला जाता है, जहाँ वह देखता है कि उस नगरी के बहुत से लोग वहाँ पहले से ही जमा थे।

राजा, “तुम कौन हो?”

वीरपाल, “मैं एक मार्गदर्शक हूँ, महाराज। आपकी प्रजा ने मुझे बताया कि आप मार्गदर्शकों को बहुत से इनाम देते हैं।”

राजा, “तो तुम इनाम लेने के लिए यहाँ पर आए हो? क्यों नहीं? आओ आओ, पहले हमारा न्याय देखो।”

वीरपाल (आश्चर्यचकित होकर), “अरे! इतना सम्मान तो मुझे कहीं भी नहीं मिला। यह राजमहल कितना सुंदर है

और उससे कहीं अधिक सुंदर तो इस राजा का दिल है। मेरी तो हो गई बल्ले-बल्ले!”

कुछ देर बाद राजा के महल में एक बूढ़ा व्यक्ति आता है।

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बूढ़ा व्यक्ति, “महाराज! मैं कपड़ों का कारीगर हूँ। कंबल बनाता हूँ और कंबल बनाकर बेचता हूँ।”

राजा, “तो क्या तुम सिर्फ यह बताने के लिए मेरे महल आए हो?”

बूढ़ा व्यक्ति, “नहीं महाराज, बात असल में यह है कि कल रात मैंने बड़ी मेहनत से एक कंबल तैयार किया

और अगली सुबह मेरे बगल में रहने वाला व्यक्ति, बाबू लोहार उस कंबल को चुराकर ले गया।”

राजा, “तुम कैसे कह सकते हो कि यह चोरी तुम्हारे पड़ोसी बाबू लोहार ने की है?”

बूढ़ा व्यक्ति, “महाराज! बाबू लोहार लोहे के जूते पहनता है और सुबह मैंने उसके जूतों की आवाज़ सुनी। ऐसे मुझे यकीन हो गया कि चोरी बाबू लोहार ने ही की है।”

राजा, “जाओ जाकर बाबू लोहार को पकड़कर लाओ।”

सैनिक कुछ ही देर में बाबू लोहार को पकड़ कर ले आते हैं।

राजा, “क्या तुमने ही इसका कंबल चुराया है?”

बाबू लोहार, “हाँ महाराज, मैंने ही चुराया है।”

राजा, “लेकिन क्यों?”

बाबू लोहार, “क्योंकि… कल रात मैंने देखा कि यह दूसरा कंबल ओढ़कर सो रहा था, जबकि इसके पास उस कंबल से अधिक मोटा

और गर्म कंबल रखा हुआ था। मुझे लगा कि यह कंबल बेकार का है, इसीलिए मैं इसे उठा लाया।”

राजा, “जब तुम्हारे पास मोटा कंबल था, तो तुम उसे भी ओढ़ सकते थे। तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है।”

बाबू लोहार, “महाराज! मैं कुछ समझा नहीं।”

राजा, “तुम्हें तुम्हारे अपराध की सजा मिलेगी।”

इतना बोलकर राजा बाबू लोहार से कहता है, “तुमने इसका कंबल चोरी कर लिया, लेकिन तुम चाहते तो झूठ बोल सकते थे और अपनी जान बचा सकते थे। तुम्हें भी सजा मिलेगी।”

राजा, “सैनिकों, इन दोनों को फाँसी पर चढ़ा दो।”

यह देखकर वीरपाल को चक्कर आने लगता है।

राजा, “अब तुम मुझे बताओ, तुम किस तरह के मार्गदर्शक हो?”

वीरपाल, “महाराज! मुझे लगता है, मुझे यहाँ से जाना चाहिए।”

राजा, “नहीं नहीं, अभी तो हमें तुम्हारा स्वागत भी करना है। अब मुझे बताओ कि क्या तुमने कभी सूरज देखा है?”

वीरपाल, “हां, देखा है।”

राजा, “चाँद देखा है?”

वीरपाल, “हाँ, देखा है।”

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राजा, “क्या तुमने आकाश में बहुत सारे तारे देखे हैं?”

वीरपाल, “हाँ, देखे हैं।”

राजा, “इसे पकड़कर ले जाओ और इसे भी फाँसी पर चढ़ा दो।”

राजा, “बहुत समय पहले एक ऐसा ही पागल व्यक्ति मेरी प्रजा को भड़का रहा था।

बोल रहा था कि इस धरती के ऊपर नीला आकाश है और वहाँ पर बहुत से तारे टिमटिमाते हैं।

और तो और, वो मूर्ख यह भी कह रहा था कि दिन के समय एक बहुत बड़ा सूरज भी चमकता है। क्या तुमने कभी उजाला देखा है?”

महारानी, “नहीं महाराज, उजाला क्या होता है? यह जरूर कोई मूर्ख व्यक्ति है। धरती पर तो हमेशा रात रहती है।”

राजा, “सुना तुमने? इस धरती पर हमेशा रात रहती है।”

वीरपाल, “महाराज! ये सभी लोग तो अंधे हैं। भला अंधा क्या जाने कि उजाला क्या होता है?

लेकिन आपकी बातों से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि आप देख सकते हैं।”

राजा, “हाँ, मैं बिल्कुल देख सकता हूँ।”

वीरपाल, “तो फिर आप मुझे क्यों सजा दे रहे हैं?”

वीरपाल की बात सुनकर राजा अपने सिंहासन से उठकर खड़ा हो जाता है और वीरपाल के कान में कहता है, “बरसों पहले मैं भी यहाँ तुम्हारी ही तरह भटक गया था।

मैंने इन सबको बहुत समझाने की कोशिश की, मगर इनमें से कोई नहीं माना।

और अब इनकी ही तरह मुझे भी विश्वास हो गया है कि ‘उजाला’ नाम की कोई चीज़ नहीं होती इस संसार में। ना ही आकाश है, ना सूरज और ना टिमटिमाते हुए तारे।”

राजा, “इसे गिरफ्तार करके फाँसी पर चढ़ा दो।”

सैनिक वीरपाल को गिरफ्तार करने ही वाले होते हैं कि तभी वहाँ गुरूजी और प्रेमपाल आ जाते हैं।

वीरपाल, “मुझे बचा लो, गुरूजी। मुझे आपकी बात माननी चाहिए थी।”

गुरूजी, “ये मेरा प्रिय शिष्य है, राजन! इसे छोड़ दीजिए।”

राजा, “नामुमकिन है ये। ये मूर्ख झूठ बोलता है, कहता है कि इस धरती के ऊपर आकाश, तारे और सूर्य हैं। मेरे राज्य में इन सब बातों की सजा मृत्युदंड है।”

गुरूजी, “महाराज! आपका आदेश सराखों पर, मैं आपके न्याय के विपरीत नहीं जा सकता। लेकिन मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ।”

राजा, “कहो, क्या कहना चाहते हो?”

गुरूजी, “महाराज! मैं आपके कान में कुछ कहना चाहता हूँ, अगर आपकी आज्ञा हो तो?”

राजा, “ऐसी क्या बात है?”

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गुरूजी, “वो आपके बहुत काम की बात है।”

राजा गुरूजी को इशारा करके गुरूजी को अपने नजदीक बुलाता है। गुरू राजा के कान में कुछ बोलते हैं।

राजा, “ठीक है, आज तो तुमने कुछ ऐसा कह दिया… पर आज के बाद कभी भी लोगों को मूर्ख मत बनाना।

तुम जा सकते हो और लेकिन दोबारा यहाँ कभी नज़र मत आना।”

वीरपाल जल्दी से उठकर गुरूजी के साथ उस नगरी से बाहर भाग जाता है।

वीरपाल, “ये सब आपने कैसे किया, गुरूजी? वो राजा मुझे छोड़ कैसे दिया?”

गुरूजी, “वो सब जन्मजात अंधे थे, उनकी पीढ़ियों में कोई भी देखने वाला व्यक्ति नहीं था।

तुम्हारे जाने के बाद मैंने जब इस राज्य के बारे में पता किया तब मुझे लगा कि वर्षों पहले ये राजा भी यहाँ पर आकर भटक गया था।

राजा ने उस समय लोगों को बहुत समझाने की कोशिश की। मगर कोई भी इसकी बात नहीं माना।

लेकिन वो एक चतुर व्यक्ति था। उसने बड़ी आसानी से यहाँ के राजा को मारकर सिंहासन हथिया लिया।”

वीरपाल, “लेकिन आपने यह नहीं बताया कि उसने मुझे क्यों छोड़ दिया?”

गुरूजी, “क्योंकि मैंने उसके कान में कहा था कि अगर तुमने मेरे शिष्य को नहीं छोड़ा, तो मैं सारी प्रजा को बता दूँगा कि तुम भी देख सकते हो

और तुमने ही उनके पुराने राजा का कत्ल किया था। अगर उसकी प्रजा को ये पता लग जाता कि वो राजा भी देख सकता है, तो उसकी प्रजा बगावत कर देती।”

प्रेमपाल, “लेकिन मेरी एक बात समझ में नहीं आई गुरूजी, वो राजा उल्टे सीधे न्याय क्यों कर रहा था? उसके न्याय पर प्रजा सवाल क्यों नहीं उठा रही थी?”

गुरूजी, “क्योंकि उन्हें लगता है कि न्याय यही है। राजा का न्याय सर्वोत्तम है। इसलिए मैंने प्रेमपाल से कहा था कि नगरी हमारे लिए खतरे से खाली नहीं।”

वीरपाल, “गुरुजी महाराज, अब मैं आपकी बात कभी नहीं टालूंगा। राम राम राम राम… अंधी प्रजा पागल राजा।”

सभी मुस्कुराने लगते हैं।


दोस्तो ये Funny Story आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!


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