अंधेर नगरी चौपट राजा | Andher Nagari Chaupati Raja | Funny Story | Majedar Hindi Kahani | Comedy Funny Stories

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हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” अंधेर नगरी चौपट राजा ” यह एक Funny Story है। अगर आपको Hindi Funny Stories, Comedy Stories या Majedar Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।


बहुत पुरानी बात है। एक बहुत सुंदर नगरी के सामने दो भिक्षु अपने गुरूजी के साथ भिक्षा मांगते हुए गुजर रहे थे। तभी गुरूजी की नजर उस सुंदर नगरी पर पड़ी।

गुरूजी, “वाह वाह… वाह! अति सुंदर। इस नगरी को देख के तो आंखें त्रिप्त हो गईं। बहुत सुंदर नगरी है।”

प्रेमपाल, “हाँ गुरूजी, बिलकुल सही कहा। बहुत सुंदर नगरी है। बस यहाँ भिक्षा भी सुंदर मिल जाए तो आनंद ही आनंद है।”

वीरपाल, “बिलकुल सही फरमाया, प्रेमपाल। अब बस इस नगरी में झोली भर मिठाइयां और पकवान मिल जाएं, फिर तो आनंद ही आनंद है।”

गुरूजी, “अच्छा अच्छा, ठीक है। चलो अब ध्यान से सुनो, कुछ भिक्षा में मिले तो भगवान को भोग लगे।

बच्चा प्रेमपाल, तुम नगरी में पूर्व दिशा की ओर जाओगे और बच्चा वीरपाल, तुम नगरी में पश्चिम दिशा की ओर जाओ।

और जो भिक्षा में मिले, सहज स्वीकार कर सूरज ढलने से पहले यहीं मिलना। चलो चलो, अब भिक्षा के लिए प्रस्थान करो।”

प्रेमपाल और वीरपाल, “जी, गुरूजी महाराज।”

वीरपाल नगरी में पहुँचता है।

वीरपाल, “अरे वाह! चलो कोई तो दिखा। ऐसा करता हूँ, एक बार राशन का दाम पूछता हूँ।

अगर सस्ता हुआ, तो थोड़ा ले चलूँगा अपने साथ। गुरूजी महाराज बड़े प्रसन्न होंगे।”

वीरपाल, “क्यों बनिए, आटे का क्या भाव है?”

बनिया, “अरे अरे बाबा जी! प्रणाम बाबा जी! टके सेर, बाबा जी।”

वीरपाल, “और चावल?”

बनिया, “वो भी टके सेर।”

वीरपाल, “और चीनी? चीनी क्या भाव दी?”

बनिया, “टके सेर।”

वीरपाल, “सब टके सेर? ये सब सच है क्या? एक बार दूसरी दुकान में पूछ कर देखता हूँ, उधर का क्या हाल है?”

वीरपाल, “अरे बेटी! टमाटर कैसे दिए?”

औरत, “टके सेर, बाबा जी।”

वीरपाल, “और गोभी?”

औरत, “टके सेर, बाबा जी। ये भी टके सेर।”

वीरपाल, “और ये वाली?”

औरत, “साधु महाराज, ये भी टके सेर दी।”

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वीरपाल, “अरे वाह वाह! आनंद ही आनंद… सब टके सेर?”

वीरपाल मिठाई की दुकान पर पहुँचता है।

वीरपाल, “ओह भाई हलवाई! मिठाई किस भाव देते हो?”

हलवाई, “कौन हो? किस देश से आए हो? टके सेर की नगरी में क्या सोच के आए हो?”

वीरपाल, “कविता..? तो हम कहाँ कम हैं। ये लीजिए, हम कहाँ से आएँगे भाई? अपना ना कोई घर, ना कोई ठिकाना।

जिधर शरण मिली, उधर रात कटे। यही हम साधुओं का ठिकाना है, अब ज़रा अपनी स्वादिष्ट मिठाई का मोल तो बताना।”

हलवाई, “टके सेर, बाबा… टके सेर। जो चाहो, वो पाओ… मूल्य रहेगा टके सेर।”

वीरपाल, “ये क्या कहते हो, हलवाई… सब टके सेर? सारी मिठाई टके सेर? वाह भाई वाह! नाम क्या है इस नगरी का, हलवाई?”

हलवाई, “बाबा, अंधेर नगरी।”

वीरपाल, “वाह वाह भाई! अंधेर नगरी, चौपट राजा… टके सेर भाजी, टके सेर खाजा”

हलवाई, “तो बाबा कुछ लेना हो तो बताइएगा। क्या बंधवाऊं आपके लिए?”

वीरपाल, “बच्चा, मांग कर पांच पैसे लाया हूँ। सबकी मिठाई कर दो।”

वीरपाल, “वाह वाह वाह! क्या किस्मत पाई है? आज तो भिक्षा में प्रभु ने प्रसन्न कर दिया। जय हो, जय हो प्रभु जय हो!”

वीरपाल गुरूजी के पास लौटता है।

गुरूजी, “बच्चा वीरपाल, क्या भिक्षा लाए? गठरी तो बहुत भारी मालूम होती है।”

वीरपाल, “गुरूजी महाराज, पांच पैसे भिक्षा में मिले थे‌। उसी से गठरी भर मिठाई लाया हूँ।”

गुरूजी, “अरे बच्चा! पांच पैसे में गठरी भर मिठाई? ये कौन सी नगरी है?”

वीरपाल, “अंधेर नगरी, चौपट राजा… टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।”

गुरूजी, “अरे राम राम राम! राम बचाए लाखों पाए। बच्चा, ऐसी नगरी में तो एक क्षण बिताना भी हमारे लिए उचित नहीं। जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकता है।”

वीरपाल, “गुरूजी, ऐसा तो संसार भर में कोई देश नहीं है जहाँ दो पैसे पास रहने से मज़े से पेट भरता है। मैं तो इस नगरी को छोड़कर नहीं जाऊंगा।”

गुरूजी, “देख बच्चे, पीछे पछताएगा। मैं तो इस नगरी में एक पल भी नहीं रहूँगा। देख, मेरी बात मान, पीछे पछताएगा।

मैं तो जाता हूँ, पर इतना कह देता हूँ कि कभी संकट पड़े तो याद करना।”

प्रेमपाल, “देख वीरपाल, क्यों जिद करता है? जब गुरूजी ने कहा चल, तो चल यहाँ से। यहाँ रुकना उचित नहीं।”

वीरपाल, “अरे! जा जा, चिपक कहीं का। चिपका रह अपने गुरूजी से। मैं तो इस नगरी में पेट भर खाऊंगा। तू भूखा भिक्षा माँग, मैं नहीं जाने वाला।”

राजमहल में…
महाराज, “ना ना रोना नहीं, चुप हो जाओ। बताओ, बताओ क्यों रो रहे हो?”

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किसान, “महाराज, कल्लू बनिये की दीवार गिर पड़ी, सो मेरी बकरी उसके नीचे दब के मर गई। दुहाई है महाराज, न्याय हो।”

महाराज, “बहुत बुरा हुआ। हाँ तो फिर जाओ, उस कल्लू बनिये को पकड़ कर लाओ।”

महाराज, “क्यों बनिये? ये कैसी दीवार बनवाई थी, जो इसकी बकरी दब कर मर गई? बता..?”

कल्लू बनिया, “महाराज, मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ही ऐसी दीवार बनाई कि गिर पड़ी। इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है।”

महाराज, “ये तो बेकसूर है। छोड़ दो इसे और कारीगर को पकड़ कर लाओ। हाँ, सारा किया धरा उसी का है।”

महाराज, “क्यों कारीगर? इसकी बकरी क्यों मर गई?”

कारीगर, “महाराज, मेरा कोई कसूर नहीं। चूने वाले ने चूना ही ऐसा खराब बनाया कि दीवार गिर पड़ी।”

महाराज, “अच्छा, तो ये बात है। खैर, उस चूने वाले को बुलाओ।”

महाराज, “क्यों चूने वाले, तुमने कारीगर को खराब चूना क्यों दिया? बताओ, नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं।”

चूने वाला, “महाराज, मेरा कुछ दोष नहीं। भिश्ती ने चूने में पानी ज्यादा डाल दिया, इसलिए चूना कमजोर हो गया होगा।”

महाराज, “अच्छा, अब समझ आई बात। उस भिश्ती को लाओ हमारे सामने।”

महाराज, “क्यों भिश्ती? इतना पानी क्यों मिलाया तुमने कि इसकी दीवार गिर पड़ी और बकरी दब कर मर गई?”

भिश्ती, “महाराज, गुलाम का कोई कसूर नहीं। कसाई ने मशक ही इतनी बड़ी बना दी थी कि उसमें पानी ज्यादा आ गया।”

महाराज, “अच्छा, कसाई को लेकर आओ और इस भिश्ती को निकालो यहाँ से।”

महाराज, “क्यों कसाई? तुमने ऐसी मशक क्यों बनाई?”

कसाई, “महाराज, गड़रिये ने इतनी बड़ी भेड़ मुझे बेची कि मशक बड़ी बन गई।”

महाराज, “अच्छा तो चलो, इस कसाई को निकालो यहाँ से और गड़रिये को लाओ यहाँ पर।”

महाराज, “क्यों गड़रिये? ऐसी बड़ी भेड़ क्यों बेची तुमने?”

गड़रिया, “महाराज, उधर से कोतवाल साहब की सवारी आ रही थी। इस कारण मैंने छोटी-बड़ी भेड़ का ख्याल ही नहीं किया। मेरा कुछ कसूर नहीं।”

महाराज, “अच्छा, इसको अब निकालो और कोतवाल को पकड़ कर लाओ।”

कोतवाल, “महाराज, मेरा कसूर कैसे? मैं तो शहर के इंतजाम के लिए आया था। भला अगर अपना काम नहीं करूँगा, तो अपना फर्ज कैसे निभाऊंगा?”

मंत्री, “ये तो बड़ा गजब हुआ। कहीं ऐसा ना हो कि ये बेवकूफ अपने चक्कर में पूरे नगर को फूंक दे? नहीं नहीं…।”

मंत्री, “तुमने इतनी धूम से सवारी क्यों निकाली?”

मंत्री, “हाँ हाँ मंत्री जी, सही कह रहे हैं। तुमने इतनी धूम से सवारी क्यों निकाली, जिसका परिणाम ये हुआ कि बकरी मर गई?”

कोतवाल, “लेकिन महाराज… महाराज।”

महाराज, “हम अब कुछ नहीं सुनना चाहते। ले जाओ इसे और फांसी पर चढ़ा दो!”

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नगरी में…
वीरपाल, “गुरूजी भी ना, मुझे बिना वजह इस खूबसूरत नगरी से जाने को कह रहे थे। मानता हूँ कि नगरी कुछ कारणों से अच्छी नहीं, लेकिन मुझ साधु का क्या?

मुझे तो खाने को चाहिए और आराम करने को। वाह वाह वाह! लड्डू तो बहुत ही स्वादिष्ट हैं। कुछ ही दिन हुए हैं अभी नगरी में। कहीं मैं मोटा तो नहीं हो गया?”

तभी राजा के कुछ सिपाही वीरपाल को घेर लेते हैं।

सिपाही, “यही मोटा सही है। चल ज़रा चल, मिठाई खाकर खूब मोटा हो रहा है। आज मज़ा मिलेगा तुझे।”

वीरपाल, “अरे! ये आफ़त कहाँ से आई? अरे भाई! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो मुझे पकड़ते हो?”

सिपाही, “आप तो बड़े मोटे हैं, इसलिए फांसी लगनी है आपको।”

वीरपाल, “मोटा होने से फांसी? अरे अरे! ये कहाँ का न्याय है? अरे! साधुओं से हँसी नहीं की जाती।

बच्चा, जाओ जाओ यहाँ से। मैंने भोजन कर लिया है। अब साधना का वक्त है, जाओ।”

सिपाही, “साधना तो हम करवाएंगे, जब सूली पर चढ़ जाओगे तब पता चलेगा कि फांसी है या हँसी है? सीधी तरह चलते हो या घसीट कर ले जाएं?”

वीरपाल, “बात क्या है? एक साधु आदमी को बिना किसी बात के फांसी पर चढ़ाना चाहते हो?”

सिपाही, “बात ये है कि कल कोतवाल को फांसी का हुक्म हुआ था, लेकिन जब फांसी देने को उसे ले गए, तो फांसी का फंदा बड़ा निकला।

और हमारे कोतवाल साहब तो दुबले हैं। फिर हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया। इस पर हुक्म हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़ कर फांसी दे दो।

क्योंकि बकरी मरने के अपराध में किसी ना किसी को तो सजा मिलनी जरूरी है ना? नहीं तो सच्चा न्याय हो नहीं पाएगा।”

वीरपाल, “हे प्रभु! इस पापी पेट के चक्कर में मैंने गुरूजी की बात नहीं मानी। हे बाप रे! मुझ बेकसूर को क्यों फांसी दे रहे हो?

अरे भाइयो! कुछ तो धर्म का ख्याल करो। अरे! मुझे छोड़ दो, छोड़ दो मुझे। मैंने गुरूजी का कहना क्यों नहीं माना?

उसी का फल है। गुरूजी, गुरूजी कहाँ हो गुरूजी? गुरूजी, मुझे अभी नहीं मरना, गुरूजी।”

गुरूजी, “अरे बच्चा वीरपाल! तेरी ये क्या दशा है?”

वीरपाल, “गुरूजी, दीवार के नीचे बकरी दब गई और इसके लिए मुझे फांसी दी जा रही है। गुरूजी, बचाइए मुझे‌।”

गुरूजी, “अरे बच्चा! अरे! मैंने तो तुझसे पहले ही कहा था कि ऐसे नगर में रहना ठीक नहीं, लेकिन तुने मेरी बात नहीं मानी।”

वीरपाल, “मैंने आपका कहा नहीं माना, उसी का फल मिल रहा है मुझे। बचाइए गुरूजी, बचाइए।”

गुरूजी, “देख बच्चा, डर मत।”

गुरूजी, “सुनो सब, मुझे अपने शिष्य को अंतिम उपदेश देना है। तुम लोग ज़रा किनारे हो जाओ। इसके बाद तुम जो कर रहे थे, वो कर लेना। अब हटो पीछे।”

सिपाही, “महाराज, हम पीछे हट जाते हैं। आप बेशक उपदेश दे सकते हैं।”

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कुछ देर बाद…
वीरपाल, “तब तो गुरूजी, हम अभी फांसी पर चढ़ेंगे।”

गुरूजी, “अरे! नहीं बच्चा, हमने इतना समझाया, नहीं मानता। हम बूढ़े हो चुके हैं, हमको चढ़ने दो फांसी पर। भला तुम्हारा पूरा जीवन शेष है, मज़े से गुजारो।”

वीरपाल, “नहीं गुरूजी, स्वर्ग जाने में बूढ़ा-जवान क्या? आप सिद्ध हैं गुरूजी, आपको गति-अवगति से क्या मतलब? मैं चढ़ूंगा फांसी पर।”

सिपाही (आपस में), “भाई, ये क्या मामला है? अभी तक तो ये मोटा साधु रो रहा था, लेकिन अब ये पहले फांसी पर चढ़ने के लिए लड़ रहा है।”

दूसरा सिपाही, “समझ नहीं आता, मैं महाराज को इसकी खबर दे कर आता हूं।”

सैनिक तुरंत महाराज के पास जाते हैं।

सिपाही, “महाराज, चेले से मिलने गुरु आया। कुछ कान में बोला, तभी से गुरु और चेला फांसी पर चढ़ने के लिए लड़ाई चल रही है। गुरु कहता है, ‘मैं चढ़ूंगा’, चेला कहता है, ‘मैं चढ़ूंगा।'”

महाराज, “ये क्या माजरा है? पता लगाना पड़ेगा। चलो, गुरूजी को महाराज के पास ले चलो हमें। हम उनसे पूछेंगे कि आखिर माजरा क्या है।”

महाराज, “बताइए गुरूजी महाराज, आप फांसी पर क्यों चढ़ना चाहते हैं?”

गुरूजी, “महाराज, इस समय ऐसी शुभ घड़ी है कि जो भी पहले फांसी पर चढ़ेगा, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।”

मंत्री, “तब तो हम ही फांसी पर चढ़ेंगे।”

गड़रिया, “नहीं महाराज, हम… हमें फांसी की सजा मिली थी, ना? हम ही चढ़ेंगे। हमको हुक्म है, हाँ। भाइयो, जल्दी करो, हमको फांसी दो।”

कसाई, “नहीं नहीं, हम लटकेंगे। हमारे कारण ही तो दीवार गिरी थी, ना?”

महाराज, “चुप रहो सब लोग। महाराज के होते हुए कौन स्वर्ग जा सकता है? हमको फांसी पर चढ़ाओ। जल्दी… जल्दी करो।”


दोस्तो ये Funny Story आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!


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