हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” लालची डाकिया ” यह एक Hindi Kahani है। अगर आपको Hindi Stories, Moral Story in Hindi या Bedtime Story पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।
सीतापुर में धरम नाम का डाकिया रहता था। वह बड़ा ही ईमानदार और नेक इंसान था। गाँव के सभी लोग उस पर बहुत भरोसा करते थे।
गाँव के जितने भी लोग थे, सब धरम से ही पत्र भेजते थे, क्योंकि वह समय पर पत्र पहुँचा देता था।
एक दिन एक महिला धरम के पास आई।
महिला, “अरे धरम भैया ! कैसे हो?”
धरम, “बढ़िया हूँ, बहन। आप बताएं, कैसी हैं?”
महिला, “सब बढ़िया है, भैया। आपने मेरे बेटे का पत्र मुझे समय से पहुँचाया था, बड़ी मदद मिली हमें। मेरी बहु को अभी बच्चा हुआ है, उन्हें मेरी जरूरत थी।
अगर जल्दी से पत्र नहीं मिलता, तो उन्हें बड़ी दिक्कत होती शहर में अकेले बच्चा संभालने में। धन्यवाद आपका।”
धरम, “अरे बहन ! यह तो मेरा फर्ज था। कोई बात नहीं।”
इतना कहकर धरम वहाँ से आगे चला जाता है। फिर, मीरा दीदी के पास पहुँचता है।
धरम, “मीरा दीदी, आओ बाहर आओ। तुम्हारा पत्र ले आया हूँ।”
मीरा दीदी, “लाओ, भैया। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ! मेरे पति इतनी दूर फौज में काम करते हैं। अगर तुम न होते, तो मैं कैसे उन तक अपना पत्र भेजती और कैसे उनके पत्र मुझे मिल पाते?”
धरम, “अरे दीदी, यही तो मेरा काम है, जो अपने परिवार से दूर हो, उनको पत्र के जरिए मिलाना। धन्यवाद भैया।”
उस गाँव में सुरेश नाम का आदमी भी रहता था। सुरेश ने कभी किसी को पत्र नहीं भेजा था।
एक दिन सुरेश बहुत ही दुखी था, क्योंकि उसकी माँ बहुत बीमार थी और शहर के सरकारी अस्पताल में एडमिट थी। वह बहुत दुखी होकर पेड़ की छांव में अकेला बैठा हुआ था। तभी वहाँ से धरम गुज़रा।
धरम, “क्या हुआ, सुरेश भाई?”
सुरेश, “कुछ नहीं, धरम भैया। माँ बहुत बीमार है और शहर में अडमिट है। मेरी बीवी उनके साथ है। फसल कटने वाली है, इसलिए मैं नहीं जा सकता।
लेकिन इलाज के लिए पैसा कहाँ से आएगा? मैं अपनी माँ के लिए एक पत्र लिखना चाहता हूँ, पर मुझे लिखना नहीं आता।”
धरम, “अरे, तो तुम परेशान क्यों हो? मैं हूँ न, मैं तुम्हारी मदद करता हूँ। रुको, मैं अभी वापस आता हूँ और तुम्हारा पत्र लिखवाता हूँ।”
इतना कहकर धरम वहाँ से चला गया क्योंकि उसे एक-दो पत्र बहुत जल्दी में पहुँचाने थे। सुरेश वहीं पर बैठकर धरम डाकिया का इंतज़ार कर रहा था। कुछ ही समय में धरम वापस आ जाता है।
सुरेश, “अरे ! आप आ गए धरम भैया?”
धरम, “हाँ, चलो अब मिलकर तुम्हारी माँ के लिए पत्र लिखते हैं।”
सुरेश ने साथ में अपनी माँ के लिए कुछ पैसे भी भेजे। सारा पत्र धरम डाकिया ने लिखा था। पर पत्र कहाँ भेजना है, वह पता सुरेश ने लिखा था।
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धरम, “भाई, तुम्हारा पत्र तैयार है और मैंने पैसे भी रख दिए हैं। दो-तीन दिन के अंदर यह तुम्हारी माँ तक पहुँच जाएगा। मैं पूरी कोशिश करूँगा कि इसे जल्दी से जल्दी पहुँचाऊँ।”
सुरेश, “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद भैया।”
सभी अपना-अपना काम करने लगे। पत्र को भेजते हुए एक हफ्ता हो गया था। एक दिन अचानक सुरेश धरम के दफ्तर में आता है। वह बहुत गुस्से में लग रहा था।
सुरेश, “अरे ! क्या हुआ सुरेश? इतने गुस्से में क्यों हो?”
सुरेश, “धरम भैया, मुझे पता चला है कि मेरी माँ का पत्र अभी तक नहीं पहुँचा। मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
आपने मुझे बेवकूफ बनाया। मैंने आप पर भरोसा करके पैसे दिए थे। आपने मुझ अनपढ़ गरीब के साथ ठीक नहीं किया।”
धरम, “अरे ! नहीं भैया, मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। आपको कोई गलतफहमी हो रही है।”
सुरेश धरम की आगे की बात सुने बिना ही अपनी आंसुओं को पोंछते हुए वहाँ से चला गया। अगले दिन गाँव के सरपंच सुबह-सुबह ही धरम डाकिया के घर पहुँच जाते हैं।
सरपंच, “धरम, तुमने क्या किया भाई? हमारा इतने सालों का भरोसा तुमने तोड़ दिया, वो भी थोड़े से पैसे के लिए।”
धरम, “ क्सरपंच जी… आप ऐसा कैसे बोल सकते हैं? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैंने तो अपनी तरफ से पत्र आगे पहुँचाया था और यह भी कहा था कि इसे जल्दी से जल्दी पहुँचाना है। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर हुआ क्या?”
सरपंच, “तो फिर सुरेश की माँ का पत्र और पैसे कहाँ गए भैया, अगर तुमने कुछ नहीं किया?”
धरम, “मुझे खुद भी नहीं पता कि आखिर हुआ क्या है। आप मुझे एक मौका दीजिए, मैं पता करता हूँ कि आखिर हुआ क्या है।”
सरपंच, “हमें कुछ नहीं सुनना है। हाँ, बस तुम्हारी यह गलती माफ नहीं की जा सकती है। तुम्हें अब हम गाँव में काम नहीं करने देंगे। हमें अब दूसरा डाकिया चाहिए।”
सरपंच की बात सुनकर धरम पूरी तरह से दंग रह जाता है और कुछ भी नहीं बोल पाता। सरपंच वहाँ से गुस्से में चले जाते हैं।
धरम, “आप तो जानते हैं न प्रभु, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। अब मैं कैसे साबित करूँ कि मैंने यह सब नहीं किया है?”
अगले दिन…
धरम, “भैया, ज़रा कुछ राशन दे दो।”
दुकानदार, “अरे ! जाओ जाओ, हम नहीं देते ऐसे धोखेबाजों को राशन। हमें माफ करो भैया।”
धरम यह बात सुनकर धरम बहुत दुखी होता है।
धरम,” भैया, मैं सालों से तुम्हारे यहाँ से ही राशन लेता आया हूँ और आज तुम ऐसा कह रहे हो। सालों से हमें तुम्हारा असली चेहरा भी तो नहीं दिखा था।
अगर दिखा होता, तो कभी अपनी दुकान पर खड़ा ही नहीं होने देते। हम हाँ।”
धरम, ” दुकान वाले ने तो कुछ भी राशन नहीं दिया। 2 दिन से काम पर भी नहीं गया हूँ। ऐसा चलता रहा, तो भूखा ही मर जाऊँगा मैं।”
धरम बहुत घबरा जाता है। उसे कुछ भी समझ नहीं आता कि वह क्या करे? वह काफी देर तक सोचता रहता है कि ऐसा न हो कि उसे गाँव वाले जाने की धमकी दे दें।
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अपनी भूख शांत करने के लिए धरम पानी पीकर बिस्तर पर लेट जाता है।
धरम, “हे भगवान ! यह क्या हो रहा है? अब मैं क्या करूँ?”
दूसरी तरफ सुरेश अपने सारे काम छोड़कर बस अपनी माँ के पत्र के बारे में सोच रहा था।
सुरेश, “ना जाने माँ कैसी होगी? मेरी बीवी सब कैसे संभाल रही होगी? हमारे पास सब पैसे भी खत्म हो गए हैं। अब मैं क्या करूँ?”
सरपंच, “अरे ! तुम परेशान क्यों हो रहे हो? हम तुम्हारी मदद कर रहे हैं न? कुछ वक्त लग सकता है, पर हम तुम्हारा पत्र और पैसा ढूंढ निकालेंगे भाई।”
इसी तरह दो दिन बीत गए। कोई धरम से पहले की तरह बात नहीं करता था, मगर उसने अपने स्वाभिमान और सच्चाई के आगे हार नहीं मानी थी। वह हर रोज़ काम के लिए निकल रहा था।
धरम,” शीला बहन, लाओ तुम्हें अपने बेटे को पत्र पहुँचाना होगा ना?”
शीला, “नहीं बाबा, रहने दो। भगवान जाने पत्र पहुँचा कि नहीं?”
धरम, “बहन, तुमने भी मुझे ऐसी खरी-खोटी सुनाने लगी।”
शीला,” अब तुम किसी गरीब का पैसा ऐसे मार के बैठोगे, तो हम तुम्हारी आरती थोड़े ही ना उतारेंगे।”
धरम अब तक सब कुछ चुपचाप सह रहा था। मगर शीला की ये कड़वी बातें उसके दिल पर लग गईं।
धरम, “ठीक है, बहन। मेरी ही कुछ भूल रही होगी। चलता हूँ।”
शीला बहन, “हाँ-हाँ, जाओ जाओ। तुम्हारे जैसे चोर-चक्को को यहाँ रोका भी किसने है? आये बड़े संत कहीं के।”
दो दिन बीत गए और धरम डाकिया अपने घर से बाहर भी नहीं निकला। सरपंच हमेशा की तरह सुबह-सुबह पंचायत में बैठे थे, तभी सुरेश भागा-भागा वहाँ आता है।
सरपंच, “अरे सुरेश ! ऐसे क्यों भाग रहे हो भाई? क्या बात हो गई?”
सुरेश, “सरपंच जी, हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई।”
सरपंच, “अरे रे ! ज़रा सांस लो, फिर बताओ क्या हुआ?”
सुरेश, “बहुत बड़ी भूल हो गई। धरम भैया बेकसूर हैं। उन्होंने कुछ नहीं किया। मुझे मेरा पत्र और पैसे दोनों मिल गए हैं।”
सरपंच, “क्या..? यह क्या बात कर रहे हो तुम?”
सरपंच के साथ-साथ वहाँ मौजूद सभी गाँववाले यह सुनकर दंग रह जाते हैं।
सरपंच, “ठीक से बताओ क्या हुआ? कहाँ से मिल गया पत्र और पैसा?”
सुरेश, “सरपंच जी, मुझसे बड़ी भूल हो गई। सारा पत्र तो धरम भैया ने लिखा था, मगर उस पर पता मैंने डाला था। मैं ठहरा अनपढ़ गंवार।
मैंने गलत पता लिख दिया। डाकिया जब पत्र लेकर शहर गया, तो वो पता मिला ही नहीं। एक हफ्ता इसलिए लग गया, क्योंकि धरम भैया ने उसे कहा था कि पत्र पहुँचाना बहुत जरूरी है।
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तो वह शहर में उस पते को खोजता रहा। इतना ही नहीं, धरम भैया ने अपने पास से कुछ पैसे भी दिए थे मेरे पत्र को जल्दी पहुँचाने के लिए।”
सरपंच, “तब तो हम बड़ी भूल कर बैठे हैं। धरम को पहचानने में।”
सुरेश,” दूसरा डाकिया, जिससे धरम भैया ने पत्र भेजा था, वो आज ही मेरे पास आया और आकर मुझे मेरा पत्र और पैसा लौटाकर गया है। मैंने बड़ा पाप कर दिया सरपंच जी, धरम भैया पे शक करके।”
सरपंच, “अरे ! तुम ही क्यों..? हम सबसे भूल हुई है भैया। हमें चल के उससे माफी मांगनी चाहिए।”
फिर रमेश, सरपंच जी और गाँव के कुछ लोग धरम के घर की तरफ चल पड़ते हैं।
सरपंच, “धरम, दरवाजा खोलो भाई।”
सुरेश, “धरम भैया, मैं सुरेश। दरवाजा खोलिए, हमें आपसे बात करनी है।”
बहुत देर तक धरम का दरवाजा खटखटाने के बाद कोई भी बाहर नहीं आता।
रमेश, “कहीं ऐसा तो नहीं कि धरम छोड़ के कहीं चला गया भाई?”
सरपंच, “अरे ! नहीं नहीं, दरवाजा अंदर से बंद है। “
रमेश, “तो कहीं ऐसा ना हो कि इतना सब सुनने के बाद उन्होंने कोई गलत कदम उठा लिया, भाई।”
सरपंच, “अरे भाई ! ये सब क्या बोले जा रहे हो? शुभ-शुभ बोलो। चलो, यह दरवाजा तोड़ते हैं।”
गाँववाले मिलकर दरवाजा तोड़ देते हैं। अंदर की हालत देखकर सब दंग रह जाते हैं। घर में ज़रा सा भी उजाला नहीं था।
सारे खिड़कियाँ, दरवाजे बंद थे। धरम डाकिया अपने पलंग पर बेहोश लेटा हुआ था। उसने इतना शोर सुनकर भी धीरे से आँखें खोली।
सुरेश, “अरे भैया ! यह आपने अपना क्या हाल बना लिया है? धरम भैया मुझे माफ़ कर दो। मैंने आपकी ईमानदारी पे शक किया। आप सही थे, भूल मुझसे हुई। मुझे मेरे पत्र और पैसे वापस मिल गए।”
सुरेश, “अच्छा हुआ भैया, अब माँ कैसी है?”
धरम की बात सुनकर सुरेश की आँखों में आंसू आ गए। उसने धरम की हथेली पकड़ ली और माफी मांगने लगा।
सरपंच, “धरम ये तुमने अपना यह क्या हाल कर लिया है भाई?”
धरम, “मैंने इतने साल इस गाँव की सेवा करके बस विश्वास और मान-सम्मान ही कमाया था। मैं उसे ऐसे टूटा हुआ देखकर खुद भी टूट गया। इसलिए मेरी यह हालत हो गई।”
सरपंच, “अब हम सबको माफ़ कर दो धरम। हमें तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था। हमसे भूल हो गई भाई।”
धरम, “कोई बात नहीं, मैंने आप सबको माफ़ कर दिया है। अब परेशान ना हो और हाँ, मेरा एक काम ज़रा जल्दी से कर दो।”
सुरेश, “क्या काम?”
धरम, “मीरा दीदी है ना जिनके पति फौज में हैं। देखो मैंने उनके पति के नाम से एक पत्र लिख के रखा है। ज़रा उन तक पहुँचाना।
उनके पति को मरे हुए अब साल भर होने को आया है। अगर मैंने उन्हें यह सच बता दिया तो वह जीते-जी मर जाएगी।
इसलिए उनके पति के नाम के झूठे पत्र लिख देता हूँ। कम से कम इसी सहारे वह ज़िंदा तो रहेंगी।”
धरम की बात सुनकर सबकी आँखों में आंसू आ जाते हैं।
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सरपंच, “तुम बहुत महान आदमी हो धरम। हम एक बार फिर से तुमसे माफी मांगते हैं। और हाँ, तुम भी अब अपनी सेहत सही कर लो भाई।
क्योंकि कल से तुम्हें ही फिर से सब पत्र पहुँचाने हैं, क्योंकि तुम ही हमारे गाँव के नंबर वन डाकिया हो भाई।”
सरपंच की बात सुनकर धरम के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती है।
धरम, “जी, जरूर।”
इसके बाद धरम पहले की तरह हर रोज़ खुशी-खुशी गाँव वालों की सेवा में लग जाता है।
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