हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” चोर बाजार ” यह एक Hindi Kahani है। अगर आपको Hindi Stories, Moral Stories या Bedtime Stories पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।
एक गांव में रतन नाम का एक बहुत ईमानदार व्यक्ति रहता था। रतन की पत्नी सुनीता गांव के दूसरे घरों में साफ़-सफाई, झाड़ू-पोछा, बर्तन मांजने का काम करती थी।
रतन का 10 वर्ष का बेटा बंकू गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ता था।
एक शाम की बात है, रतन काम से थका हारा अपने घर पर आया ही था कि तभी उसकी पत्नी सुनीता रतन से बोली, “मैं आपका इंतजार कर रही थी।
रतन, “क्या हुआ? सब कुछ ठीक तो है? आज तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?”
सुनीता, “बात ही कुछ ऐसी है। बंकू को आज प्रिंसिपल ने धमकी दी है कि अगर कल तक स्कूल की फीस जमा नहीं कराई गई, तो स्कूल से बंकू को निकाल दिया जाएगा। नाम काट देंगे इसका।”
रतन, “ऐसे कैसे काट देंगे ये स्कूल? प्रिंसिपल की कोई जागीर थोड़ी ना है। अरे! सरकारी स्कूल है।”
सुनीता, “इस बात को तो मैं भी जानती हूँ। लेकिन आप ही बताओ ना, आपने बंकू की फीस कितने महीने से जमा नहीं की?”
सुनीता की बात सुनकर रतन उदास होकर गहरी सोच में डूबते हुए बोला,
रतन, “बात तो तुम सही कह रही हो। बंकू की फीस हमने पिछले छह महीने से जमा नहीं की। इसमें प्रिंसिपल का कोई दोष नहीं, सारा दोष मेरा है।”
सुनीता, “मेरी एक बात समझ में नहीं आती। हमारे पास पांच बीघा उपजाऊ जमीन है, फिर भी आप दूसरों के खेतों में काम करते रहते हैं और उसके बदले आपको आखिर मिलता ही क्या है?
अगर मैं दूसरों के घर में बर्तन न मांजूँ, तो हमारे घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल हो जाएगा।”
रतन, “मैं क्या करूँ सुनीता? तुम अच्छी तरह से जानती हो कि हमारी पांच बीघा जमीन चतुर सिंह के यहाँ पर गिरवी पड़ी हुई है।
पिताजी ने सेठ जी से जो 2 लाख रुपए का कर्जा लिया था, वो उसे चुका नहीं पाए और स्वर्ग सिधार गए। और रही बात मेरी, तो तुम तो जानती हो कि मैं मुश्किल से कितना कमा पाता हूँ?”
सुनीता, “मैं आपकी सारी बात समझती हूँ, लेकिन कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा ना? अगर ऐसे ही चलता रहा तो मुझे लगता है हमारे इससे भी बुरे दिन शुरू हो जाएंगे।”
रतन, “तुम चिंता मत करो सुनीता, मैं कोई न कोई इंतजाम करता हूँ।”
इतना कहकर रतन चारपाई पर लेटकर गहरी सोच में डूब गया। रतन रात भर यही सोचता रहा कि आखिर ऐसा कौन सा काम किया जाए जिससे उसकी गरीबी दूर हो जाए?
अगले दिन रतन अपने चतुर सिंह की हवेली में पहुँच गया। रतन चतुर सिंह की हवेली में अपने ही खेतों में काम किया करता था, जो कि चतुर सिंह के कब्जे में थी। रतन को हवेली में देखकर चतुर सिंह पूरी तरह से चौंक गया।
चतुर सिंह, “क्या बात है रतन, आज तुम खेत में काम पर नहीं गए? सुबह-सुबह यहाँ क्यों चले आए भई?”
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रतन, “आप तो जानते हैं सेठ जी कि मेरा परिवार गरीबी की किस कगार पर खड़ा है? और कल तो हद हो गई।”
चतुर सिंह, “क्यों भई, कल ऐसा क्या हो गया जो तुम्हारे पैर हमारी हवेली तक आने के लिए मजबूर हो गए?”
रतन, “कल स्कूल वालों ने मेरे बेटे बंकू को स्कूल से वापस कर दिया, ये बोलकर कि जब तक मैं उनकी पूरी फीस नहीं चुका देता, तब तक बंकू स्कूल में नहीं पढ़ सकता।
और यहाँ तक कि उन्होंने ये तक बोल दिया कि अगर कुछ दिनों के अंदर मैंने उनकी फीस नहीं चुकाई तो वो मेरे बेटे का नाम काट देंगे।”
चतुर सिंह, “तो इसमें हैरानी की क्या बात है? क्या तुम्हें पता नहीं कि गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने का कोई अधिकार नहीं?
अरे भाई! अपने बेटे से कहो कि तुम्हारे साथ मिलकर वो तुम्हारे काम में हाथ बटाए। तुम ही सोचो, स्कूल में पढ़ाई करके उसे आखिर क्या मिलेगा?
वैसे भी पढ़-लिखकर किसी की नौकरी तो लगती नहीं है, तुम्हारे साथ कुछ काम करेगा तो तुम्हें कुछ न कुछ कमा कर ही देगा।”
रतन, “ये कैसी बातें कर रहे हैं सेठ जी? आप चाहते हैं कि मैं अपने बच्चे की पढ़ाई छुड़वा दूं और उसे अपनी ही तरह अनपढ़ रहने दूं?”
चतुर सिंह, “अनपढ़ होना बुरी बात नहीं है, रतन। गरीब होना बुरी बात है।
अब तुम ही देखो, इस देश में ना जाने कितने ऐसे नेता बनते हैं जिन्होंने कभी स्कूल की शक्ल तक नहीं देखी होती?”
रतन, “इस देश में नेता किस प्रकार से बनते हैं और वो क्या करते हैं, मुझे इस बात से कोई लेना-देना नहीं।
मैं किसी भी कीमत पर अपने बेटे की शिक्षा नहीं छुड़वा सकता, क्योंकि शिक्षा ही हमारे आने वाले कल को सुधारती है।”
चतुर सिंह, “मुझे कोई शौक नहीं है ये बताने का कि तुम्हें क्या करना है? अब वो सब छोड़ो, ये बताओ कि तुम यहाँ पर क्यों आए हो?”
रतन, “सेठ जी, मेरे खेत आपके यहाँ पर बरसों से गिरवी रखे हैं। मुझे अपने खेत होते हुए भी अपने ही खेतों में नौकरी करनी पड़ रही है और उसके बदले आप मुझे देते क्या हैं?
चतुर सिंह, “मेरे खेत में जितने भी नौकर काम करते हैं, उससे अधिक ही तो मैं देता हूँ। अब तुम क्या चाहते हो?”
रतन, “मैं आपसे ज्यादा कुछ नहीं चाहता, सेठ जी। मैं बस ये चाहता हूँ कि मेरी पगार थोड़ी सी बढ़ा दी जाए और उस पगार में से थोड़े से पैसे मुझे अभी दे दिए जाएं, ताकि मैं बंकू की स्कूल की फीस जमा करा सकूँ।”
रतन की बात सुनकर चतुर सिंह जोर-जोर से हंसते हुए बोला, “लगता है तुम्हारा दिमाग खराब हो गया, रतन।
तुम शायद भूल गए हो कि तुम्हारे पिताजी ने मुझसे 2 लाख रुपए का कर्जा लिया था, 2 लाख का।”
रतन, “जी, मुझे अच्छी तरह से याद है सेठ जी और उस कर्ज को चुकाते-चुकाते मुझे 20 बरस से अधिक हो गए हैं।
मैं 15 साल का था जब से मैं अपने ही खेतों में दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह जुटा रहता हूँ। लेकिन ना के बराबर आपसे पगार लेता हूँ।
उसके बावजूद भी आपके 2 लाख रुपए खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे।”
चतुर सिंह, “तुम जितना काम करते हो, उतना तुम ले जाते हो। और रहा सवाल तुम्हारे खेत का, तो तुम्हारे पिताजी ने 2 लाख रुपए मुझसे उधार लिए थे, जो ब्याज मिलाकर आज की तारीख में कम से कम 10 लाख रुपए होते हैं।
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10 लाख रुपए मुझे दे दो और अपने खेत वापस ले लो। उसके बाद अपनी मर्जी के मुताबिक अपने खेत में हल चलाना और फसल बोना, मैं तुमसे कोई सवाल नहीं करने वाला।”
रतन, “तो क्या आप मेरी पगार नहीं बढ़ाएंगे, सेठ जी? मैं बहुत मजबूरी में आपके पास आया हूँ।”
चतुर सिंह, “जिसे तुम मजबूरी कहते हो, हमारी भाषा में उसे बगावत कहते हैं… बगावत। और मैं बागियों की बात नहीं मानता और ना ही उन्हें काम पर रखता हूँ।
अब सुनो, तुम अब से काम पर आने की कोई भी जरूरत नहीं है। जाओ, जाओ, जाओ, अब तुम जा सकते हो यहाँ से।”
रतन मुँह लटकाकर घर चला आया, जहाँ पर उसका पड़ोसी बिरजू पहले से ही उसका इंतजार कर रहा था।
बिरजू भी चतुर सिंह की हवेली में ही काम करता था।
रतन को उदास देखकर बिरजू मुस्कुराते हुए बोला, “मैं जानता था कि चतुर सिंह तुम्हारी पगार नहीं बढ़ाएगा और तुम्हें काम से भी निकाल देगा।
तुम्हारे चेहरे की मायूसी बता रही है कि तुम्हारे साथ कुछ ऐसा ही हुआ है।”
रतन, “तुमने बिल्कुल सही कहा, बिरजू। मैंने चतुर सिंह के यहाँ 20 साल लगातार कितनी मेहनत और ईमानदारी से काम किया?
आज जब मैंने अपनी पगार में कुछ रुपए बढ़ाने की बात की, तो उसने मुझे काम से ही निकाल दिया।
और तो और, जो मेरे पिताजी ने 2 लाख रुपए का कर्ज लिया था, वो अब 10 लाख रुपए में परिवर्तित हो गया है। बताओ?”
बिरजू, “अरे! मैंने तुमसे पहले भी कहा था और अब भी कह रहा हूँ कि मैं जानता हूँ कि चतुर सिंह अपनी तिजोरी कहाँ रखता है?
और तो और, मैं ये भी जानता हूँ कि उस तिजोरी की चाबी कहाँ है? लेकिन तुम मेरा साथ देने के लिए कभी तैयार नहीं होते यार।”
रतन, “मेरा जवाब तुम्हारे लिए कल भी ना था और आज भी ना है। मैं चोर नहीं हूँ।”
बिरजू, “अरे! राजा हरिश्चंद्र बनकर तुम्हें आखिर मिलेगा क्या है? तुम खुद ही देखो, उस सेठ ने तुम्हारी पगार बढ़ाने से मना कर दिया और तुम्हें काम से भी निकाल दिया है। उसके बाद भी तुम ऐसी बातें कर रहे हो?”
रतन, “हाँ, अगर उसने मुझे काम से बाहर निकाल दिया, तो ये उसका स्वभाव है भाई। मैं उसके स्वभाव की वजह से चोर नहीं बन सकता।
मुझे अपनी ईमानदारी पर पूरा भरोसा है। एक न एक दिन मेरे दिन जरूर बदलेंगे।”
बिरजू, “हाँ, जरूर बदलेंगे रतन, जरूर बदलेंगे… लेकिन सिर्फ सपनों में।”
इतना कहकर बिरजू वहाँ से चला गया।
बिरजू के जाते ही रतन की पत्नी सुनीता, रतन से बोली,
सुनीता, “पहले तो मुझे बिरजू के ऊपर बहुत क्रोध आता था, लेकिन जिस तरह से आज उस सेठ ने तुम्हें काम से निकाल दिया, अब तो मुझे बिरजू की बात सही लग रही है। तुम्हें बिरजू का साथ देना चाहिए।”
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रतन, “तुम कैसी बातें कर रही हो, सुनीता? तुम जानती हो, ये बिरजू मुझे चतुर सिंह के घर पर चोरी करने को बोल रहा है? क्या मैं तुम्हें चोर दिखता हूँ?”
सुनीता, “चतुर सिंह एक नंबर का पापी है। पापियों के घर पर चोरी करने में क्या शर्माना?
तुम्हारे हाथ में कुछ पैसे आ जाएंगे, तो हमारे दिन-रात अच्छे हो जाएंगे।”
रतन, “ईश्वर पर भरोसा रखो, सुनीता। और याद रखना, मैं चोरी नहीं करूँगा।”
रतन की बात सुनकर सुनीता चुप हो गई। कुछ दिन के बाद रतन के बुरे दिन शुरू हो गए।
रतन ने पूरे गांव में हर किसी से काम मांगा, मगर उसे काम नहीं मिला। कुछ ही दिनों के बाद उसके घर पर राशन, पानी सब कुछ खत्म हो गया।
रतन और उसके परिवार की भूखे मरने की नौबत आ गई। एक दिन रतन की पत्नी सुनीता रतन को ₹3 देती हुई बोली, “ये लीजिए, मेरे पास सिर्फ यही ₹3 बचे हैं।”
रतन, “₹3 में भला क्या आएगा, सुनीता? तुम्हारे सेठ की वजह से मुझे भी मेरे मालिक ने काम से निकाल दिया।
ये ₹3 ही बचे हैं मेरे पास। तुम्हारे पास तो तुम्हारी ईमानदारी के अलावा कुछ है ही नहीं। जाइए और शाम के समय खाली हाथ मत आइएगा।”
रतन उदास होकर अपने घर से चल दिया और एक पेड़ के नीचे बैठकर अपनी गरीबी के बारे में सोचते हुए फूट-फूट कर रोने लगा।
तभी एक बुजुर्ग व्यक्ति हाथों में लाठी थामे रतन के पास आकर बोले, “कौन हो तुम और क्यों रो रहे हो?”
रतन, “मैं बहुत परेशान हूँ, बाबा। अभी मेरा बातचीत करने का बिल्कुल भी मन नहीं है।”
बुजुर्ग, “अरे,! बातचीत करने से मन हल्का हो जाता है, बेटा। मुझे अपनी समस्या बताओ। हो सकता है कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।”
रतन रोते हुए अपने घर के सारे हालात उस बुजुर्ग व्यक्ति को बताने लगा।
बुजुर्ग, “तुम्हारी समस्या का एक हल है मेरे पास। मैं एक ऐसे बाजार के बारे में जानता हूँ, जो ‘चोर बाजार’ के नाम से प्रसिद्ध है।
जहाँ पर एक से एक महंगी वस्तु बहुत सस्ते दामों में मिलती है। तुम्हारे ₹3 से तुम बहुत कुछ ला सकते हो।”
रतन, “लेकिन बाबा मैं चोरी के सख्त खिलाफ हूँ, और आप मुझे चोर बाजार जाने के लिए कह रहे हैं?”
बुजुर्ग, “बेटा, उसका नाम ‘चोर बाजार’ है, लेकिन वहाँ पर चोरी की वस्तुएं नहीं मिलतीं। ये तो बस एक मुहावरा है।”
उस बुजुर्ग व्यक्ति ने रतन को एक जंगल का पता दिया।
रतन, “लेकिन बाबा, वहाँ तो घना जंगल है।”
बुजुर्ग, “हां, कुछ खास चोर बाजार अक्सर घने जंगलों में ही लगते हैं, बेटा।”
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रतन धीमे कदमों से उस जंगल की ओर चल दिया। कुछ दूर जाकर उसे जंगल में एक बाजार लगा नज़र आया, जहाँ पर एक से एक आधुनिक वस्तुएं लेकर पुरानी वस्तुएं तक बिक रही थीं।
उस चोर बाजार में खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर हवाई जहाज तक मौजूद थे। ये देखकर रतन की आश्चर्य से आँखें फटी की फटी रह गईं। रतन की नजर दाल-चावल की दुकान पर पड़ी।
रतन वहाँ पहुंचते ही झिझकते हुए उस दुकानदार से बोला, “भैया, ये आटे की बोरी और दाल की बोरी कितने किलो की हैं?”
दुकानदार, “भैया, ये आटे की बोरी 25 किलो की है और ये दाल की बोरी भी 25 किलो की है।”
रतन, “मेरे पास तो केवल ₹3 हैं, लेकिन बाबा ने कहा था कि यहाँ पर बहुत सस्ती वस्तुएं मिलती हैं।”
रतन को सोचते देख वह दुकानदार रतन से बोला, “क्या हो गया भैया? किस सोच में पड़ गए?”
रतन, “ये आटा और दाल की बोरी मुझे कितने में मिल जाएँगी?”
दुकानदार, “अरे भैया! केवल ₹1 में।”
यह सुनकर रतन बुरी तरह से दंग रह गया।
रतन, “कहीं आप मजाक तो नहीं कर रहे?”
दुकानदार, “अरे भैया! मुझे लग रहा है कि आप यहाँ पर नये हो।”
रतन ने बिना देर किए ₹1 दे दिया और बोरी को उठाकर घर ले आया।
घर आकर…
सुनीता, “अरे! आपके पास तो कल ₹3 थे। क्या आप किसी से पैसे उधार लेकर आए हो?”
रतन, “पागल हो गई हो क्या? मुझ जैसे गरीब को कौन भला पैसे उधार देगा?”
इतना बोलकर रतन ने सारी बात अपनी पत्नी सुनीता को बता दी।
सुनीता, “अगर ऐसी बात है तो फिर आप उस चोर बाजार से वस्तुएं लाकर कोई व्यापार क्यों नहीं शुरू करते?”
रतन, “लेकिन अब मेरे पास केवल ₹1 ही बचा है।”
सुनीता, “कोई बात नहीं। आपने कहा कि उस बाजार में ₹1 में कोई भी महंगी वस्तु मिल जाती है।
आप ₹1 की कोई भी महंगी वस्तु ले लीजिए और उसे बेच दीजिए। फिर अगले दिन जो मुनाफा हो, उससे और अधिक सामान ले आइए।”
रतन को अपनी पत्नी की बात पसंद आई। अगले दिन वह फिर से चोर बाजार पहुँचा।
वह सीधा एक कंप्यूटर की दुकान पर गया और एक महंगा कंप्यूटर ₹1 में खरीदकर ले आया और गांव में बेच दिया।
रतन को उस कंप्यूटर से पूरे 20 हजार रूपए का मुनाफा हुआ। इसके बाद ऐसा रोज़ होने लगा।
कुछ ही दिनों में रतन के दिन बदल गए। अब बंकू सरकारी स्कूल में नहीं, बल्कि एक महंगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ने लगा।
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इधर रतन के टूटे-फूटे घर की जगह एक बहुत बड़ा आलीशान मकान बन गया। कुछ महीनों बाद रतन सीधा सेठ के पास पहुँचा।
रतन, “सेठ जी, ये लीजिए 10 लाख रुपए।”
सेठ, “वो सब तो सही है रतन, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर तुम इतने पैसे कहाँ से लेकर आए?”
रतन, “सेठ जी, आपको अपने कर्ज से मतलब है। इससे आपको कोई मतलब नहीं कि मैं ये पैसे कहाँ से लेकर आया?
बाकी पूरा गांव जानता है कि मैं एक ईमानदार हूँ, कोई भी गलत कार्य नहीं कर सकता।”
रतन का टका सा जवाब सुनकर सेठ अपने दांत पीस कर रह गया। वह चाह कर भी अब कुछ नहीं बोल सकता था
क्योंकि रतन अब उसकी बराबरी तक पहुँच गया था। रतन ने अपने पिता की जमीन छुड़ा ली।
सेठ (मन में), “मुझे इसका पीछा करना पड़ेगा। सुना है कि ये अक्सर जंगलों में जाता रहता है।”
अगले दिन सेठ ने रतन का चुपके-चुपके पीछा करना शुरू कर दिया। सेठ ने देखा कि रतन एक जंगल में जाकर रुका और वहाँ अकेले-अकेले बातें करने लगा।
यह देखकर सेठ बुरी तरह से डरते हुए अपने आप से बोला, “लगता है कि इससे पता लग गया है कि मैं इसका पीछा कर रहा हूँ।”
सेठ चुपचाप मन मारकर अपने घर लौट आया। कुछ दिन बाद उसने रतन का पीछा करने का विचार त्याग दिया।
कुछ दिन बाद सुनीता अपने पति रतन से बोली, “मैं भी उस बाजार को एक बार देखना चाहती हूँ।”
रतन, “अरे! ये भी कोई पूछने की बात है। चलो तुम तैयार हो जाओ, आज मैं तुम्हें अपने साथ उस चोर बाजार में लेकर जाऊंगा।”
सुनीता तैयार होकर रतन के साथ सीधा उस जंगल में चली गई, जहाँ पर वह चोर बाजार लगा करता था।
मगर सामने का दृश्य देखकर रतन बुरी तरह से चौंक गया, क्योंकि वहाँ चोर बाजार का कोई नामोनिशान नहीं था।
सुनीता, “यहाँ तो कुछ भी नहीं है।”
रतन, “मेरी बात का विश्वास करो सुनीता, यहीं पर ही चोर बाजार लगा करता था। मैंने यहीं पर बहुत सी वस्तुओं को खरीद कर बेचा है। सच कह रहा हूँ।”
तभी रतन की नजर उसी बुजुर्ग व्यक्ति पर पड़ी, जो उसकी ही ओर आ रहा था।
रतन, “अरे बाबा! आप तो वही हैं जिन्होंने मुझे इस चोर बाजार का पता बताया था। वो चोर बाजार कहाँ गया?”
बुजुर्ग, “वो एक बहुत ही खास चोर बाजार था, बेटा। अब तुम धनवान हो चुके हो, अब तुम्हें उस चोर बाजार की कोई आवश्यकता नहीं।
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अब वो चोर बाजार यहाँ से हटकर कहीं और लग चुका है, क्योंकि वो चोर बाजार कभी भी एक जगह नहीं टिकता।”
इतना कहकर वो बुजुर्ग वहाँ से चला गया।
सुनीता अपने पति की ओर देखकर बोली, “लगता है आप अभी भी नहीं समझे। वो चोर बाजार असल में एक मायावी चोर बाजार था।
ईश्वर ने आपकी ईमानदारी से प्रसन्न होकर शायद आपके ऊपर ये उपकार किया है। मुझे आपकी ईमानदारी पर गर्व हो रहा है।”
रतन, “शायद तुम सही कह रही हो।”
रतन अपनी पत्नी के साथ घर लौट आया। वह आज भी सोचता है कि आखिर आज वो चोर बाजार कहाँ पर लगा होगा?
दोस्तो ये Hindi Kahani आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!