हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” गरीब फिशकरी वाली ” यह एक Moral Story है। अगर आपको Moral Stories, Hindi Stories या Hindi Moral Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।
बंगाल के छोटे से गांव में सुधा अपने माता पिता के साथ रहती थी। उसके पिता हर रोज़ बाड़ी से ताज़ी मछलियों पकड़कर बाजार में बेचा करते थे।
सुधा को भी मछली खाना बहुत पसंद था। उसकी माँ अक्सर उसके लिए गरमा गरम भात के साथ फिशकरी बनाया करती थी।
सुधा को अपनी माँ के हाथ की बनी फिशकरी इतनी ज्यादा पसंद थी कि वो आए दिन अपनी माँ से फिश करी बनवाया करती थी।
इसी तरह समय बीता और सुधा अब 30 साल की हो गई।
सुधा, “आज तुम मेरे लिए फिश करी बनाओ ना। कितने दिन हो गए तुमने मेरे लिए फिश करी नहीं बनाई?”
मां, “अरे! बोल तो ऐसे रही है जैसे तुझे फिश करी खाये पता नहीं कितने दिन हो गए? अभी 3 दिन पहले ही तो मैंने तेरे लिए फिशकरी बनाई थी।”
सुधा, “अरे! तो देखो तो पूरे 3 दिन हो गए, तुमने मेरे लिए फिशकरी नहीं बनाई।
मैं तो अगर 1 दिन भी तुम्हारे हाथ की बनी फिशकरी ना खाऊ ना, तो मुझे अजीब सा लगने लगता है।
अब तो फिर भी मैंने 3 दिन से तुम्हारे हाथ की फिशकरी नहीं खायी।”
मां, “अब तू बड़ी हो गई है। अब मैं कब तक तुझे अपने हाथ की फिशकरी बनाकर खिलाती रहूंगी?
अब तो तू मुझे अपने हाथ से ही गरमा गरम भात के साथ स्वादिष्ट फिश करी बनाकर खिला।
मन तो मेरा भी बहुत करता है तुम्हें अपने हाथ की फिशकरी खिलाने का। लेकिन क्या करूँ?
मैं चाहे जितनी भी कोशिश कर लूँ लेकिन तुम जैसी फिशकरी कभी बना ही नहीं पाती।
पता नहीं तुम फिश करी में ऐसा कौन सा मसाला डालती हो, जो तुम्हारे हाथ की फिशकरी इतनी टेस्टी बनती है।”
मां, “अरे! ऐसा कुछ नहीं है। मैं फिशकरी में वही सब मसाले डालती हूँ जो तू फिशकरी में डालती है।”
सुधा, “नहीं माँ, कुछ तो अलग है जब मैं इतनी भी कोशिश करने के बाद तुम जैसे फिशकरी नहीं बना पाती।”
मां, “अच्छा ऐसा है तो चल, आज मैं तुझे अच्छी तरह से फिशकरी बनाना सिखाती हूँ।”
ललिता सुधा को अच्छी तरह फिश करी बनाना सिखाती है, तो अगले दिन सुधा घर में सबके लिए फिशकरी बनाकर तैयार करती है।
मां, “अरे वाह! आज तो फिशकरी से बहुत ही अच्छी खुशबु आ रही है।”
सुधा, “वो तो आएगी ही माँ, आज मैंने फिशकरी तुम्हारी बताई हुई रेसीपी से जो बनाई है।
आज तुम मेरे हाथ की फिश करी खाकर देखना, अपनी उंगलियाँ चाटती रह जाओगी।”
मां, “अच्छा… तो चल आजा फिर जल्दी से परोस दे।”
गरीब फिशकरी वाली | GARIB FISH CURRY WALI | Moral Story | Moral Kahaniyan | Hindi Moral Stories
सुधा सबके लिए खाना परोसती है। तभी उसके पिता जी भी खेत से खाना खाने के लिए आते हैं।
सुधा की मां, “अरे! बिल्कुल सही समय पर आए हैं आप। देखिए आज हमारी बेटियों ने हमारे लिए कितनी स्वादिष्ट फिश करी बनाई है?”
सुधा के पिता, “क्या… ये फिशकरी सुधा ने बनाई है? खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है। चल बेटा जल्दी से खाना परोस दे, बहुत ज़ोर से भूख लग रही है।”
सीधा अपने माता पिता को खाना परोसती है तो उसके हाथ की बनी फिशकरी खाकर वो दोनों अपनी उँगलियाँ चाटते रह जाते हैं।
सुधा, “अरे वाह बेटा! आज तो तूने फिश करी बनाने में अपनी माँ को भी पीछे छोड़ दिया। फिशकरी का ऐसा स्वाद तो आज तक मैंने कहीं नहीं चखा।”
सुधा, “क्या पिताजी आप भी खामखां में ही तारीफ कर रहे हैं?”
मां, “हाँ मानती हूँ कि फिशकरी अच्छी बनी होगी, लेकिन इतनी भी अच्छी नहीं कि माँ के हाथ की बनी फिशकरी का मुकाबला कर सके।”
वो लोग खाना खा ही रहे होते हैं तभी उनके घर पर उनकी एक पड़ोसन विमला काकी आती है।
सुधा की मां, “आओ आओ विमला काकी, बहुत दिनों बाद आना हुआ। आ जाओ बैठकर हमारे साथ खाना खाओ।
आज सुधा ने अपने हाथों से हमारे लिए फिशकरी बनाई है।”
विमला काकी, “अरे वाह! फिशकरी अगर सुधा बिटिया ने बनाई है तब तो मैं जरूर चखूंगी। लेकिन उससे पहले जो बात कहने आयी है वो तो कह दूं।”
सुधा की मां, “क्या हुआ विमला काकी, कोई बहुत जरूरी बात है क्या?”
विमला काकी, “अरे! जरूरी बात तो है। तूने उस दिन मुझसे कहा था ना कि मेरी सुधा के लिए कोई अच्छा सा रिश्ता मिले तो जरूर बताना,
तो बस मुझे सुधा के लिए एक अच्छा सा रिश्ता मिल गया है तो उसी सिलसिले में तुझसे बात करने के लिए आयी हूँ।
लड़का बहुत अच्छा है, खेती का काम करता है। ज्यादा तो नहीं लेकिन इतना कमा लेता है कि घर का खर्चा चल सके और बाकी तुम भी जानते हो।
हम जैसे गरीब लोगों के रिश्ते हम जैसे लोगों में ही अच्छा हो तो अच्छा है वरना अमीर लोगों की है ना शादी करके तो लड़कियां जिंदगी भर पछताती हैं।”
सुधा की मां, “अरे! आपने सही कहा काकी। अब वैसे भी मैं सुधा के लिए ऐसा ही लड़का चाहती थी, जो भले ही कम कमाता हो, लेकिन अच्छा हो।
अच्छा हुआ जो आपने मुझे इस रिश्ते के बारे में बता दिया। अगले हफ्ते घर बुला लीजिए।”
अगले हफ्ते सुधा को देखने के लिए लड़के वाले उनके घर पर आते हैं। पहली नजर में देखते ही सुधा उन लोगों को पसंद आ जाती है।
कुछ महीने बाद शादी करके सुधा अपने ससुराल चली जाती। है।
मोहन, “सुधा, मैं खेत में जा रहा हूँ। दोपहर में खाना खाने आऊंगा। अगर तुम्हें कोई चीज़ चाहिए तो मुझे बता दो, मैं दोपहर में आते हुए ले आऊंगा।”
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सुधा, “नहीं नहीं जी, मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस आप ये बता दीजिए कि मैं दोपहर में खाने के लिए क्या बनाऊं?”
मोहन, “तुम्हारा जो भी मन हो, तुम बना लेना सुधा। तुम तो वैसे भी सब कुछ अच्छा ही बनाती हो।
जब हम तुम्हें देखने आए थे, तो तुम्हारे हाथ का खाना बहुत अच्छा था। इसीलिए तुम्हारा जो मन हो तुम खुद ही बना लो।”
सुधा, “अच्छा तो मैं आपके लिए आज फिशकरी बनाऊं? मैंने फिशकरी अपनी माँ से बनाना सीखी है।
मेरी माँ बहुत अच्छी फिशकरी बनाती है। आप एक बार मेरे हाथ की फिशकरी खा लोगे ना तो हर रोज़ फिशकरी खाने में मांगोगे।”
मोहन, “अच्छा, अगर ऐसी बात है तो फिर ठीक है, तुम आज खाने में फिशकरी ही बना लेना। माँ को भी फिश करी बहुत पसंद है।
लेकिन बूढ़ी होने के बाद माँ से अब घर का काम नहीं होता। तुम आज फिशकरी बनाओगी तो माँ भी फिशकरी खाकर बहुत खुश हो जाएगी।
लेकिन तुम्हें खुद बाजार जाकर ही मछली लानी पड़ेगी क्योंकि मुझे अभी खेत में जाकर फसल की कटाई करनी है।
अगर मैं मछली लेने जाऊंगा तो शाम को ही आ पाऊंगा, तो तुम दिन में कुछ और बना लो, शाम को फिशकरी बना लेना।”
सुधा, “नहीं नहीं जी, फिशकरी तो मैं दोपहर में ही बनाऊंगी। आप चिंता मत कीजिए, मैं बाजार जाकर मछली खरीद कर ले आउंगी।”
मोहन काम करने के लिए खेत में चला जाता है और सुधा बाजार जाकर मछली खरीद कर ले आती है।
वो पूरे मन से सभी के लिए फिश करी बनाकर तैयार करती है। दोपहर होते ही मोहन घर पर खाना खाने के लिए आ जाता है।
सुधा सभी के लिए खाना परोस देती है।
सास, “अरे वाह बहू! आज तूने खाने में फिशकरी बनाई है। फिशकरी तो मुझे बहुत ही पसंद है
लेकिन अब मुझसे खाना बनाने में ज्यादा मेहनत नहीं होती, इसलिए कुछ आसान सा ही बना लेती हूँ।
आज तो तूने खाने में फिशकरी बनाकर मेरे मन को खुश कर दिया। फिश करी में से खुशबू तो बहुत ही अच्छी आ रही है। लगता है ये खाने में भी बहुत अच्छी होगी।”
सुधा, “हां मांजी, ये फिशकरी मैंने बनाई है और ये मैंने अपनी माँ से सीखी है। आप एक बार खाकर देखिये, आपको बहुत पसंद आएगी।”
सुधा के ससुराल वाले जैसे ही उसके हाथ की बनी फिशकरी को चखते हैं, तो उन्हें उसका स्वाद बहुत ही पसंद आता है।”
सास, “अरे! सच में बहू… ये फिशकरी तो बहुत ही स्वादिष्ट है। अब मैंने तो आज से पहले अपनी जिंदगी में कभी इतनी स्वादिष्ट फिशकरी नहीं खायी।
मैं तो कहती हूँ अब तू खाने में हर रोज़ यही फिशकरी बनाइयो। इसे खाकर तो मुझे मज़ा आ गया।”
मोहन, “सच में सुधा ऐसी फिशकरी तो बाजार में भी नहीं मिलती। अगर कोई ऐसी फिशकरी बनाकर बाजार में बेचने लगे,
तो वो एक प्लेट फिशकरी और चावल के लिए कम से कम ₹100 ले लेगा।
अगर मैं तुम्हारे हाथ की बनी फिशकरी को बाजार में बेचने लगूं, तो थोड़े ही समय में लखपति बन जाऊंगा।”
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सब लोग इसी तरह हँसी मजाक करते हुए खाना खा लेते हैं। अब कम से कम हफ्ते में तीन से चार बार सुधा घर पर फिशकरी बनाने लगती।
सब कुछ बहुत ठीक चल रहा था। तभी एक दिन मोहन की माँ की तबियत बहुत खराब हो जाती है।
वो उसे अस्पताल लेकर जाते हैं, तो डॉक्टर उनका ऑपरेशन करने के लिए ₹5 लाख का खर्चा बता देते हैं।
मोहन, “समझ नहीं आ रहा, इतनी जल्दी मैं इतने सारे पैसे कहाँ से लेकर आऊं? हम जैसे गरीब लोगों के पास इतनी बड़ी रकम कहाँ से आएगी?
मेरे पास तो ले देकर ये एक खेत ही है। इसे गिरवी रखकर ही अब मुझे माँ का इलाज करवाना पड़ेगा।”
सुधा, “अरे! कोई बात नहीं जी, खेत हमें दोबारा वापस मिल जाएगा। लेकिन मां जी का ऑपरेशन करवाना भी बहुत ज्यादा जरूरी है।
आप जल्दी से ज़मींदार के पास जाकर अपने खेत की गिरवी रख दीजिए।
मोहन अपनी माँ का ऑपरेशन करवाने के लिए अपने खेत को जमींदार साहब के पास फिर गिरवी रख देता है।
कुछ दिनों के बाद उसकी माँ भी ठीक होकर घर जा जाती है, लेकिन अब उसके सर पर घर के खर्चे के साथ साथ जमींदार साहब का कर्ज चुकाने का भी बोझ था,
लेकिन इस बार खेत की फसल बारिश की वजह से पूरी तरह बर्बाद हो जाती है। जिस वजह से वह जमींदार साहब के पैसे दिए हुए नहीं चुका पाता।
मोहन, “अगर अगले तीन महीने में मैं जमींदार साहब के पैसे नहीं चुका पाया, तो मेरा खेत मेरे हाथों से चला जाएगा। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा कि मैं क्या करूँ?”
सुधा, “आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए। मैं जो कहती हूँ वो मेरी बात मानिए, मैं बाजार में अपना फिशकरी का ठेला खोल लेती हूँ।
आज कल खाने में बहुत कमाई है। बारिश कब फसल को खराब कर दे, कुछ नहीं कह सकते? लेकिन फिशकरी का काम तो हमेशा ही चलता रहेगा।”
मोहन, “तुम ठीक कहती हो, सुधा। लेकिन हमारे पास इतने पैसे कहां है कि मैं बाजार में तुम्हारा फिशकरी का ठेला खुलवा सकूँ।”
सुधा, “अरे! आप उसकी चिंता मत कीजिए, मैं अपने कुछ गहनों को बेचकर फिशकरी का ठेला खोल लूंगी। फिशकरी का ठेला खोलने से ज्यादा खर्चा भी नहीं आएगा।”
मोहन, “ठीक है, अगर तुम्हें ये सही लगता है तो तुम यही करो। मैं तुम्हारे काम में तुम्हारी पूरी मदद करूँगा।”
मोहन सुनार के पास जाकर सुधा के कुछ गहनों को बेच देता है। उन पैसों में सुधा बाजार में अपना फिशकरी का ठेला खोलती है।
उसके हाथ की फिशकरी लोगों को इतनी पसंद आती है कि बहुत ही कम समय में वो पूरे बाजार में गरीब फिशकरी वाली के नाम से मशहूर हो जाती है।
वो अपने फिशकरी के ठेले से इतने पैसे कमा लेती है कि तीन महीने की जगह एक महीने के अंदर ही वो जमींदार साहब के सारे पैसे ही चुका देते हैं।
एक साल के अंदर उनका काम इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि उन्हें गांव में अपना फिशकरी का ढाबा खोलना पड़ता है।
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मोहन भी अब सुधा के काम में पूरी तरह से मदद करने लगता है। धीरे धीरे दोनों मिलकर मेहनत करके गांव में अपना फिशकरी का रेस्टोरेंट खोल लेते है और ज़िन्दगी में बहुत आगे बढ़ते है।
दोस्तो ये Moral Story आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!