लालची पावभाजी वाला | Lalchi Pav Bhaji Wala | Hindi Kahani | Moral Story | Bedtime Stories in Hindi

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हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” लालची पावभाजी वाला ” यह एक Hindi Kahani है। अगर आपको Hindi Stories, Moral Stories या Hindi Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।


प्रीतमगढ़ राज्य में झुमरू नाम का एक नाई रहता था, जिसके दो बेटे थे। बड़ा बेटा गबरू, जो बौना था। दूसरा बेटा बिलुआ, जो बदमाश था।

क्योंकि गबरू कद का छोटा था, इसलिए कोई भी लड़की उससे शादी को तैयार नहीं थी।

छोटा भाई बिलवा की शादी हो चुकी थी। एक दिन झुमरू अपने दोनों बेटों को अपने पास बुलाता है।

झुमरू, “बेटा, मेरी अवस्था अब दुकान संभालने की नहीं रही। मेरी आँखों की रौशनी लगातार घटती जा रही है।”

सुंदरी, “ऐसा क्यों बोलते हो जी? अभी तो आप कम से कम 20 साल दुकान संभालेंगे।”

झुमरू, “ऐसा नहीं है। कल ही एक कस्टमर का मैंने मूंछ काटते-काटते थोड़ा-सा नाक काट दिया।”

बिलुआ, “ओह! फिर क्या हुआ?”

झुमरू, “फिर क्या? जैसे-तैसे मामला शांत हुआ। कल से बिलुआ दुकान संभालेगा। वैसे भी शादीशुदा होने के कारण इसकी जिम्मेदारी ज्यादा है।”

सुंदरी, “तो फिर गबरू क्या करेगा? वो कैसे अपना जीवन चलाएगा?”

झुमरू, “देखो सुंदरी, अपना बेटा सबको अच्छा लगता है। लेकिन गबरू में ऐब है, यह तुम्हें भी पता है और हमें भी पता है।

इस बौने से कौन शादी करेगा? दूसरी बात यह सर्कस में जोकर बनकर कमा सकता है।”

सुंदरी, “क्या बोलते हो जी? दुनिया का पहला बाप देख रही हूँ, जो अपने बेटे को सर्कस में जाकर जोकर बनने के लिए बोल रहा है।”

बिलुआ, “माँ, बौने को बौना नहीं, तो क्या कहोगी? पिताजी ने इसके लिए सबसे अच्छा धंधा चुना है।”

दूसरे दिन से बिलुआ अपने पिताजी की दुकान पर जाकर बाल काटने का काम करने लगता है।

एक-दो महीने दुकान चलाने के बाद, एक दिन बिलवा गबरू से बोलता है।

बिलवा, “देख गबरू, हमारे दुकान में एक ही आदमी का काम है और तू इतना छोटा है कि किसी का बाल भी ठीक से काट नहीं सकता। तूने अपने बारे में क्या सोचा है?”

गबरू, “क्या करूँ भाई? भगवान ने मुझे ऐसा बनाकर भेजा है कि कहीं भी काम मांगने जाता हूँ तो सब हंसकर यही बोलते हैं कि तुमसे काम क्या होगा?”

बिलुआ, “वो सब मैं नहीं जानता, तुम अपना कहीं और ठिकाना देख लो।”

सुंदरी, “बेटा, भाई से ऐसे नहीं बोलते। जितना तुम्हारा हक दुकान पर है, उतना गबरू का भी है।”

बिलुआ, “देखो माँ, जब पिताजी ने वह दुकान मेरे नाम कर दी तो फिर तुम लोगों का उसमें कोई हक नहीं बनता।

और हाँ, ये बात मैं सिर्फ गबरू के लिए नहीं, तुम दोनों के लिए भी कह रहा हूँ।”

झुमरू, “क्या कहा? तुम्हारा मतलब क्या है? ज़रा साफ-साफ बताना तो।”

बिलुआ, “तो साफ-साफ सुन लो पिताजी, मेरे परिवार में एक नया सदस्य आने वाला है और मैं नहीं चाहता कि वह हमारी तरह गरीबी में पले-बढ़े।”

सुंदरी, “तो क्या इसके लिए तुम हम लोगों को घर से बाहर निकाल दोगे?”

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बिलुआ, “बेहतर होगा कि मेरे निकालने से पहले आप लोग खुद यहाँ से निकल जाओ।”

झुमरू, “नीच, कमीने… क्या इसीलिए मैंने तुझे पाल-पोसकर बड़ा किया था?”

बिलुआ, “पिताजी, यह मत भूलिए कि आज मेरे ही टुकड़े पर आप लोग पल रहे हैं और मैं भी बड़ा हो गया हूँ। मेरे भी हाथ उठ सकते हैं।”

सुंदरी, “क्या कहा? अपने पिताजी पर तुम हाथ उठाओगे? लेकिन मेरी कोई सुनता कहाँ है?”

झुमरू, ” जाने दो सुंदरी, यह सब ऊपर वाले की लीला है। अपने नसीब में बुढ़ापे में ही घर से बाहर निकलना था। कल सुबह ही हम लोग इस घर से निकल जाएंगे।”

सुबह में झुमरू, सुंदरी और गबरू तीनों बिलुआ का घर छोड़कर चले जाते हैं। शहर जाने के क्रम में बीच में जंगल पड़ता था।

सुंदरी, “बस जी, अब वो नहीं चला जाता। थोड़ा सुस्ता लेते हैं।”

गबरू, “माँ- पिताजी, आप यही पेड़ की छाँव में बैठो। मैं देखता हूँ, जंगल में कुछ फल-फूल मिल जाएंगे।”

गबरू फल की खोज में जंगल में चल देता है। थोड़ी दूर जाने के बाद वो देखता है कि बहुत सुन्दर कुटिया के पास बहुत से फलों से लदे पेड़ लगे हैं।

पास में ही एक तपस्वी धूनी रमाए बैठे हैं। तभी वो देखता है कि एक सांप तपस्वी को काटने जा रहा है।

वो झट से सांप को हाथ में पकड़ लेता है। लेकिन सांप बड़ा होने के कारण गबरू को अपनी पूंछ से बांध लेता है।

गबरू झटपटाने लगता है। तभी तपस्वी का ध्यान पत्तों की खरखराहट से टूट जाता है और वो गबरू को सांप से अलग कर बचाता है।

तपस्वी, “कौन हो तुम बालक? इस घने जंगल में क्या करने आए हो?”

गबरू, “प्रणाम महाराज! मेरा नाम गबरू है। मैं अपने बूढ़े माता-पिता की भूख मिटाने के लिए कुछ फल ढूंढने आया था। मेरे माता-पिता नदी किनारे पेड़ की छाँव में भूखे बैठे हैं।”

तपस्वी, “बालक, मैं तपस्वी देवराज तुम्हारी माता-पिता के प्रति आदर भाव और मुझे बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देने के तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हुआ।

ये लो एक फल, इसमें तुम लोगों की भूख मिट जाएगी।”

गबरू, “जी महाराज, मैं इसे अभी माँ-पिताजी को जाकर खिला देता हूँ।”

तपस्वी, “परंतु मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि तुम अपने माता-पिता के साथ जंगल में क्यों भटक रहे हैं?”

तब गबरू अपने परिवार और बिलुआ के बारे में बताता है कि किस तरह उसके छोटे भाई ने उन सभी को घर से निकाल दिया।

तपस्वी, “यह फल मामूली फल नहीं है। इससे तुम जो चाहोगे, एक बार में वह तुम्हारी इच्छा पूरी कर देगा।

लेकिन मैं चाहूंगा कि इससे तभी मदद लेना, जब तुम्हें इसकी जरूरत हो।”

गबरू, “जी महाराज, अब मुझे आज्ञा दें ताकि मैं जाकर अपने बूढ़े माता-पिता की भूख को शांत कर सकूं।”

गबरू फल लेकर तेजी से अपने माँ-पिताजी के पास पहुंचता है और उन्हें सारी कहानी बताता है।

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फिर वो लोग फल से अपने लिए स्वादिष्ट खाने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं और उसी खाने को खाकर नगर की ओर निकल जाते हैं।

नगर में एक ढाबे पर…
जगन, “अरे बौने! तुझे क्या चाहिए? बहुत देर से देख रहा हूँ, टुकुर-टुकुर देख रहा है।”

गबरू, “फिलहाल तो मुझे काम की सख्त जरूरत है। मुझे काम चाहिए।”

जगन, “अबे ठिगने मेरा पाव-भाजी का दुकान है। एक पाव के बराबर तो तू ही है।

तू क्या काम करेगा मेरे यहाँ? जा, कहीं और नौटंकी में शामिल हो जा।”

धर्मा, “जगन, तुम्हें काम नहीं देना है तो मत दो। लेकिन किसी के रूप, रंग और कद का ऐसे मजाक उड़ाना उचित नहीं।”

जगन, “अच्छा, बहुत बुरा लग रहा है तुझे? तो तुम ही अपने ढाबे में काम पर क्यों नहीं रख लेते?”

धर्मा, “मैं जरूर रख लेता, लेकिन… मुझे तो खुद कोढ़ हो गया है। मैं दुकान बंद करके हरिद्वार जा रहा हूँ, वहीं बैठकर भीख मांगूंगा।”

धर्मा, “बेटा, मेरी दुकान भी पाव-भाजी का सामने है। लेकिन मुझे कोढ़ हो जाने के कारण ये दुकान मैं बंद कर हरिद्वार जा रहा हूँ। अगर तुम चाहो तो इसे खुद से चला सकते हो।”

गबरू, “चाचा, आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं। हम दोनों मिलकर पाव-भाजी की दुकान चलाएंगे।”

धर्मा, “बेटा, मुझे कोढ़ हो गया है और ये बात नगर में सभी को मालूम हो चुका है। इसीलिए मेरी दुकान से कोई खाना नहीं खाता।

एक-दो कस्टमर आता भी है तो ये लालची जगन उसे कोढ़ के नाम पर भड़का देता है और अपने ढाबे में बुला लेता है।”

गबरू, “चाचा, मेरे मां-पिता भी मेरे साथ हैं। हमें एक कमरा चाहिए, ताकि हम लोग रह सकें।”

धर्मा, “अगर तुम लोग छुआछूत नहीं मानते, तो मेरे घर पर रह सकते हो। वैसे भी अब मैं हरिद्वार निकलने ही वाला हूँ।”

धर्मा उन लोगों को अपने घर ले जाता है। वहां गबरू से चमत्कारी फल से एक छोटा सा फल मांगता है और धर्मा को खाने के लिए देता है।

फल खाते ही धर्मा के जितने भी कोढ़ के लक्षण थे, सारे गायब हो जाते हैं। धर्मा खुश हो जाता है। तभी नगर में महामारी फैल जाती है।

धर्मा, “लो, इस महामारी में तो लोग हमारी पांव-भाजी भी नहीं खाएंगे। अब हम लोग कैसे रहेंगे? पता नहीं ये महामारी कब खत्म होगी।”

गबरू चमत्कारी फल से महामारी ठीक होने वाली दवा की इच्छा ज़ाहिर करता है।

फल से तुरंत एक रस से भरी बोतल निकलती है। उस चमत्कारी रस को पांव-भाजी में छिड़क कर वो बेचने लगता है, जिससे बीमार व्यक्ति ठीक होने लगते हैं।

उधर, प्रीतमगढ़ के दरबार में…

सेनापति, “महाराज की जय हो! हमारी खुफिया विभाग से हमें पता चला है कि चूनागढ़ के महाराज भैरव सिंह हम पर हमला कर प्रीतमगढ़ को अपने राज्य में मिलाना चाहते हैं।”

मंत्री, “जी महाराज, हमने भी पता करवाया है। चूनागढ़ के महाराज भैरव सिंह का मानना है कि हमारे नागरिक उनके राज्य में पलायन कर महामारी फैला रहे हैं।

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और ये भी मानना है कि हम लोग महामारी पर काबू नहीं पा रहे हैं। अगर एक हफ्ते में महामारी पर काबू नहीं पाया गया तो वे हम पर हमला कर देंगे।

सेनापति, “और महाराज, इस वक्त हमारे आधे से ज्यादा सैनिक बीमार पड़े हुए हैं।

जो हैं भी, वह महामारी से भयभीत हैं। वह भी आक्रमण का सामना करने को तैयार नहीं हैं।”

महाराज, “मंत्री जी, जितना जल्दी हो सके महामारी के रोकथाम के लिए उपाय निकालिए, नहीं तो बहादुर राजा भैरव सिंह के सामने हमारे सैनिक कहीं भी नहीं टिकेंगे।”

मंत्री, “महाराज, हमें पता चला है कि नगर में पांव-भाजी बेचने वाला बौना गबरू, उसकी पांव-भाजी खाने से लोग तेजी से ठीक हो रहे हैं।”

तभी राज वैद्य आकर बताते हैं कि जांच में महाराज सहित राजमहल के अधिकांश लोग महामारी से ग्रसित पाए गए हैं।

महाराज, “मंत्री जी, हमें उस गबरू पांव-भाजी वाले की दुकान पर ले चलिए।”

दूसरे दिन गबरू की पांव-भाजी की दुकान पर…

महाराज, “मंत्री जी, यहाँ कोई बहुत बड़ा मंदिर है क्या, जहाँ लोगों का तांता लगा हुआ हो?”

मंत्री, “नहीं महाराज, मंदिर नहीं… यहाँ गबरू का चमत्कारी पांव-भाजी मिलता है, जिसे खाकर लोग स्वस्थ हो रहे हैं। ये उसी की लाइन है।”

जगन, “अबे बौने! महाराज अपने मंत्री और सेनापति के साथ तेरे ही दुकान पर धावा बोलने आ रहे हैं। जल्दी से दुकान बंद कर भाग जा।”

जगन, “धर्मा, मैं ना कहता था कि ये बौना किसी ना किसी दिन तुझे फंसाएगा। ये पांव भाजी में अफीम डालकर सारे लोगों को बीमार कर रहा है।”

तभी महाराज खड़क सिंह गबरू की दुकान पर पहुंचते हैं।

महाराज, “इस दुकान का मालिक कौन है?”

गबरू, “महाराज की जय हो! मैं गबरू इस दुकान का मालिक हूँ, बताइए महाराज आपकी क्या सेवा करूँ?”

महाराज, “गबरू, मैं चाहता हूँ कि तुम हमारे सारे जनता और सैनिक सहित राज़ महल के कर्मचारियों को भी मुफ्त में अपनी पांव-भाजी खिलाओ।”

महाराज, “मंत्री जी, इसके लिए गबरू को राजकोष से धन मुहैया कराया जाए।”

मंत्री, “जी महाराज, आपके आदेश का पालन किया जाएगा।”

मंत्री, “सेनापति जी, अपने स्वस्थ सैनिकों को पांव-भाजी के वितरण में लगाइए, ताकि एक सप्ताह के अंदर पूरी तरह से महामारी पर काबू पाया जा सके।”

महाराज, “गबरू, फिलहाल हमारे और हमारे परिवार के लिए कुछ पांव-भाजी दे दो, ताकि हम लोग जल्द से जल्द स्वस्थ हो सकें।”

उधर गांव में बिलुआ अपने शराबी दोस्त जगिया के साथ खूब शराब और कबाब में पैसे उड़ाता है,

जिससे वो कर्ज में चला जाता है और उसकी दुकान भी बिक जाती है।

गरीबी और महामारी से तंग आकर बिलुआ शहर में मजदूरी करने आ जाता है। यहाँ वो लोगों को पांव-भाजी पहुंचाने का काम करने लगता है।

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एक दिन…

सेनापति, “ऐ लड़का! इधर सुनो, क्या करते हो यहाँ?”

बिलुआ, “जी सरकार, मैं यहाँ जरूरतमंदों को पांव-भाजी खिलाता हूँ।”

सेनापति, “इस इलाके में जल्द से जल्द पांव-भाजी की जरूरत है। तुम तुरंत यहाँ पर्चा लेकर पांव-भाजी के दुकान पर जाओ

और वहाँ के मालिक को यहाँ पर्चा देकर 50 बैलगाड़ी पांव-भाजी ले आओ।”

बिलुआ 50 बैलगाड़ी लेकर गबरू की पांव-भाजी की दुकान पर पहुंचता है,

लेकिन पांव-भाजी लेने के लिए लोगों की भीड़ में वो पांव-भाजी के मालिक तक नहीं पहुँच पा रहा था। तभी उसकी मुलाकात धर्मा से होती है।

बिलुआ, “मालिक, यह पर्चा सेनापति वीरभद्र सिंह ने दिया है। 50 बैलगाड़ी पांव-भाजी की तत्काल जरूरत है।”

धर्मा, “यह तो राज़ पर्चा है। इसके लिए तो तुम्हें मालिक के पास ही जाना पड़ेगा।

ऐसा करो, मैं यहाँ तैनात एक सैनिक को बोल देता हूँ, वह तुम्हें मालिक के पास पहुंचा देगा। वहाँ यह पर्चा दिखाना।”

सैनिक बिलुआ को लेकर गबरू के पास जाता है।

बिलुआ, “अरे गबरू! तू… यहाँ नौकरी करता है? देख, आज मैं अपनी मेहनत के बदौलत राज़ कर्मचारी बन गया हूँ।

यह राज़ पर्चा देख, तुम्हारे मालिक को दिखा कर 50 बैलगाड़ी पांव-भाजी लेने आया हूँ। सेनापति वीरभद्र सिंह मुझे खुद यह पर्चा दिए हैं।”

गबरू, “धर्मा चाचा, इसे 50 बैलगाड़ी पांव-भाजी दे दो।”

गबरू, “ऐ बौने, चल परचा इधर ला। मामूली परचा समझ कर रखा है क्या? यह राज़ पर्चा है और मुझे यहाँ के मालिक का हस्ताक्षर भी इस पर चाहिए?”

धर्मा, “हाँ गबरू बेटा, इस पर हस्ताक्षर कर दो।”

बिलुआ, “रुको रुको, इस पर दुकान मालिक का हस्ताक्षर चाहिए।”

धर्मा आगे कुछ कह पाता कि तभी कुछ सैनिक आकर बिलुआ को धकेलते हुए कहते हैं, “साइड हटो, महाराज खड़कसिंह यहाँ आ रहे हैं।”

थोड़ी देर में लाव लश्कर के साथ महाराज खड़क सिंह पहुंचते हैं और गबरू से हाथ मिलाकर कहते हैं…

महाराज, “शाबाश गबरू! तुमने आज अपने राज्य की लाज बचा ली। हमने लगभग पूरी तरह से महामारी पर काबू पा लिया है।

चूनागढ़ के महाराज भैरव सिंह ने तुमसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की है और अपने राज्य में पांव-भाजी की सेवा देने के लिए बुलाया है।”

गबरू, “महाराज, ये सब आपके हस्तक्षेप के बिना असंभव था।”

महाराज, “हमें इसका श्रेय देकर तुमने अपना बड़प्पन दिखाया है। काम तो सारा तुम्हारा ही है।”

बिलुआ भीड़ में से महाराज और गबरू को सिर्फ टकटकी लगाकर देख रहा था।


दोस्तो ये Hindi Story आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!


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