5 रुपये की थाली | 5 Rupaye Ki Thali | Hindi Kahani | Moral Stories | Bedtime Stories | Hindi Kahaniyan

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हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” 5 रुपये की थाली ” यह एक Hindi Story है। अगर आपको Hindi Stories, Moral Stories या Achhi Achhi Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।


जगन का शहर में एक होटल था। जगन बहुत ही लालची था। वो हमेशा सोचता कि किस तरह कम खाना देकर कस्टमर से ज्यादा से ज्यादा पैसे ठग सके?

कालू वहाँ काम करता था। वो एक सीधा साधा लड़का था। हमेशा वो लोगों की भलाई करता। उसे जगन का लालचीपन पसंद नहीं था।

एक दिन जगन के होटल पर गांव का एक गरीब किसान, रतन अपनी पत्नी और बेटे के साथ आता है।

जगन, “देखो कालू, ये लोग देहाती भोले-भाले लगते हैं। इन्हें पहले पेट भर खाना खिलाओ, उसके बाद बिल दोगुना बनाकर देना।”

कालू, “मालिक, ये ठीक बात नहीं। इनसे हमें और कम पैसे लेने चाहिए। कितने गरीब दिख रहे हैं?”

जगन, “गरीब है तो हम क्या करें? मैंने कोई धर्मशाला थोड़ी ही खोल रखा है।

बाजार में इन्हीं लोगों से पैसे कमाने के लिए ही तो हम बैठे हैं। ऐसा करो, तुम उन्हें मेरे पास भेज दो।”

कालू, “हाँ साहब, क्या खाएंगे?”

रतन, “हम तो गांव के गरीब किसान हैं, भई। हम लोग तो रोटी, सब्जी और दाल-भात से ज्यादा कुछ मालूम ही नहीं है।”

जगन, “अबे! कस्टमर को बैठाएगा भी या बाहर से ही भगा देगा। चल अंदर जाकर टेबल साफ कर।”

रतन, “अरे अरे भैया! क्यों डांट रहे हो बच्चे को? मैं ही खाने के बारे में पूछा था इससे।”

जगन, “अरे सर! पूछना क्या? अंदर आइए। आप हमारी लक्ष्मी हैं। ग्राहक भगवान होते हैं।

आइए बैठिए। आपका ही होटल है। आपसे ज्यादा थोड़े ही ले लूँगा।”

रतन, “अरे! वैसी बात नहीं। पूछना ज़रूरी है ना? जो भी पैसे लाए थे, डॉक्टर की फीस और दवाई में चली गई। श्रीमती को भूख लगी थी, तो सोचा थोड़ा खाना खिला दूँ।”

जगन, “अरे! आइए, बैठिए। कालू, इन लोगों के लिए स्पेशल थाली लगाओ।”

कालू ₹300 वाली तीन स्पेशल थाली लेकर आता है।

कालू, “लीजिए साहब, ये रही आपकी स्पेशल थाली।”

रतन, “पर मेरे पास सिर्फ ₹30 ही है।”

कालू, “मालिक, इनके पास पैसे नहीं हैं।”

जगन, “अबे! पैसे नहीं हैं, तो क्या खाना छीन लेगा? खाने दो इनको।”

रतन की पत्नी, “आज भी लोगों में इंसानियत जिंदा है। कितना भला मानस है ना होटल का मालिक?”

रतन, “हाँ। कितना अच्छा व्यवहार है? भगवान! ऐसे लोगों को हमेशा अन्नभंडार भरे रखना।”

रतन का बेटा, “पिताजी, खाना तो बहुत अच्छा है। साथ में बड़ा वाला रसगुल्ला मिल जाता तो मज़ा आ जाता।”

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रतन, “चुपचाप खाना खा, पैसे हैं नहीं। वो तो भला हो इस दुकान के मालिक का, जो हमें इतना अच्छा खाना खिलाया।”

जगन, “अरे भाई साहब! बच्चा है। उसे खाने का मन है रसगुल्ला, तो खाने दीजिए।”

कालू, “ऐ कालू! दो-दो रसगुल्ले इन सभी लोगों को दो।”

रतन, “अरे भाई साहब! इतनी खातिरदारी ठीक नहीं। वैसे शानदार खाना खिलाने के लिए धन्यवाद!”

जगन, “कालू, ये लो साहब को खाना का बिल दे दो।”

कालू जाकर रतन को बिल देता है। बिल ₹1050 का होता है।

रतन का बेटा, “पिताजी, हमारे पास तो सिर्फ ₹30 ही हैं। शेष पैसे कहाँ से आएँगे?

इन्होंने तो कहा था कि पैसे की कोई चिंता नहीं, अपना होटल समझकर खाइए।”

रत्न, “हां, मैंने तो बोला भी था इन्हें कि हमारे पास सिर्फ ₹30 ही बचे हैं। और इतना महंगा खाना…अरे! ₹30 में थाली खाना मिलता है।

यहाँ तो सब्जी, तड़का, सलाद, पानी सबके अलग-अलग चार्ज हैं।”

जगन, “क्या हुआ भाई साहब, क्या समस्या है?”

रतन, “देखिए भाई साहब, मैंने तो पहले ही बोल दिया था आपको कि हमारे पास सिर्फ ₹30 है। पूछिए कालू से।”

कालू, “हाँ मालिक, मैंने आपको पहले ही बता दिया था।”

रतन, “सुन लीजिए। आपने ही बोला था कि पैसे नहीं हैं, तो क्या खाना छीन लेगा?”

जगन, “अरे वो तो शिष्टाचार में बोल दिया था। इसका मतलब ये थोड़े ही है कि मुफ्त में सभी को खाना खिलाता रहूँ।”

रतन, “तो उसी समय बोल देते कि मैं सेवा नहीं दे पाऊंगा, पर इतना महंगा खाना… मेरे यहाँ ₹30 में चावल, दाल, भुजिया, सब्जी, पापड़, अचार, ऊपर मूली, खीरा और प्याज का सलाद भी।”

जगन, “भाई, मेरे यहाँ तो यही रेट है। भले तुम्हारे गांव में फ्री में ही खिला देते हों।”

रतन, “अब करना क्या है, ये बताइए? हमारे पास तो पैसे नहीं हैं।”

जगन, “ठीक है, तो आप कुछ सामान यहाँ रख दो। जिस दिन पैसा दे जाओगे, उस दिन मैं आपको लौटा दूंगा।”

रतन, “लेकिन मेरे पास तो वैसा कुछ नहीं है, जिसे मैं आपके पास गिरवी रख सकूँ।”

जगन, “है ना… वो जो भाभी जी के गले में मंगल सूत्र है‌।”

रत्न की पत्नी, “नहीं, मैं ये मंगल सूत्र नहीं दूंगी। ये मेरे सुहाग की निशानी है। इसे मैं कभी अपने से अलग नहीं कर सकती।

जिस दिन से उन्होंने इसे गले में डाला है, उस दिन से ये मेरे गले में ही है। कभी मैंने इसको अलग नहीं किया।”

कालू, “मालिक, ये अच्छी बात नहीं। मंगल सूत्र किसी औरत का सुहाग होता है। आप मेरी पगार में से पैसे काट लीजिएगा।”

जगन, “अच्छा, बहुत आया अपने पगार में से कटवाने वाला। 5000 पगार ही है, उसमें से 2000 तुम एडवांस ले चुके हो। अगर ये पैसे काट लिए, तो अपने बाप को क्या भेजोगे?”

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कालू, “कुछ भी हो जाए, ये भी मेरे माँ के समान है और मैं किसी भी माँ को इस तरह बेइज्जत होते नहीं देख सकता।”

कालू, “जाओ चाचा, आप लोग जाओ।”

रतन, “बेटा, तुम्हारा ये उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा। अगली बार जब भी मैं शहर आऊंगा, तुम्हें खोजकर तुम्हारा पैसा लौटा दूंगा।”

कालू, “अरे चाचा! पैसा लौटाने की जरूरत नहीं है। ये भी मेरी माँ के समान हैं। मेरी माँ बचपन में ही गुजर गई थी।

माँ का दर्द क्या होता है, ये मुझसे अच्छा किसे पता होगा?”

रत्न, “जुग जुग जियो मेरे बेटे। जरूर तुम्हारी माँ संस्कारों वाली रही होगी।”

रतन अपने परिवार के साथ वहाँ से चला जाता है। रतन के जाने के बाद जगन कालू को बहुत खरी-खोटी सुनाता है। कालू खून का घूँट पीकर रह जाता है।

एक दिन सुबह-सुबह एक तपस्वी, देवराज जगन की दुकान पर आते हैं।

देवराज, “अलकनिरंजन! बच्चा, कुछ खाने को मिलेगा? बहुत दूर से आया हूँ।”

कालू, “प्रणाम महाराज! आइए, आपको शुद्ध शाकाहारी खाना खिलाऊंगा।”

देवराज, “जीते रहो बालक! लेकिन साधु के पास देने के लिए आशीर्वाद के सिवा कुछ नहीं है।”

कालू, “आप जैसे सिद्ध पुरुष के आशीर्वाद के सामने पैसों का क्या मोल? आइए, विराजिए महाराज। मैं अभी खाना लेकर आया।”

तभी जगन वहां आता है। साधु को बैठा देख कालू से पूछता है, “क्यों रे कालू! ये नई थाली और ग्लास में खाना क्यों ले जा रहा है? पुरानी प्लेट सभी टूट गई हैं क्या?”

जगन, “मालिक, ये कोई सिद्ध पुरुष जान पड़ते हैं। बहुत दूर हिमालय से आए हैं। इनके पास पैसे भी नहीं हैं।

नई थाली में इसलिए खाना दिया हूँ क्योंकि हमारे यहाँ अधिकतर बर्तन मांसाहारी हैं।”

जगन, “अपने खाने के लिए औकात तो है नहीं, लेकिन व्यवहार तो ऐसा करते हो जैसे किसी राजा खानदान से हो।

चलो जाओ, और चुपचाप साधू को बोलो कि यहाँ भीख नहीं मिलता है और कहीं और जाकर भीख मांगे।”

कालू, “नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता। किसी को खाना पर से नहीं उठा सकता। ये तो तपस्वी हैं।

आप मेरा पगार दीजिए और उसमें से इनका पैसा काट लीजिए। मैं आप जैसे मालिक के यहाँ काम भी नहीं करना चाहता।”

जगन, “तेवर तो नवाबों जैसे हैं तुम्हारे। ये लो एडवांस, रतन का और साधु का पैसा काटकर ₹1950 है और फूटो यहाँ से।”

कालू, “ठीक है, इसमें से ₹300 और रख लो मेरे आज के खाने का।

कालू वहाँ से निकलकर एक बरगद के पेड़ के पास बैठा सोच रहा होता है कि अब आगे क्या करना है?:तभी वहाँ पर तपस्वी देवराज आते हैं।

देवराज, “क्या हुआ, बालक? यहाँ पर ऐसे क्यों उदास होकर बैठे हो?”

कालू, “कुछ नहीं, महाराज। इस दुनिया में लोग पैसों के पीछे इतना क्यों भागते हैं, जो मानवता को भी भूल जाते हैं?”

देवराज, “यही दुनिया है, मेरे बच्चे। संसार के इस मोह माया से ऊपर उठना सबके बस की बात नहीं।

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वैसे तुमने मुझे बहुत बढ़िया खाना खिलाया, लेकिन खाने के बदले तुम मुझसे कुछ लेना भूल गए।”

कालू, “मैं कहाँ कुछ भूला?”

देवराज, “तुम्हें याद है, खाना खाने से पहले मैंने तुझे बोला था कि मेरे पास देने के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन आशीर्वाद जरूर है। बताओ बालक, तुम्हारी क्या इच्छा है?”

कालू, “महाराज, मेरी इच्छा है कि लोगों को मैं मुफ्त में खाना खिला सकूँ, लेकिन मैं ये नहीं चाहूंगा कि लोग मुफ्त में खाना खाकर मुफ्तखोर बन जाएं।

इसलिए मैं चाहता हूँ कि कम से कम पैसों में मैं लोगों को खाना खिला सकूँ।”

देवराज, “तुम तो होटल में काम कर चुके हो। अपने अनुभव के आधार पर ये बताओ कि एक आदमी का भरपेट अच्छा खाना खिलाने में कितने रुपए का खर्च आएगा?”

कालू, “जी, ₹50 में अच्छा से अच्छा खाना हो जाएगा।”

देवराज, “ठीक है, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम जो भी गरीबों के भोजन बनाओगे, वह 10 गुना हो जाएगा।

तुम्हारे एक किलो चावल से 10 किलो भात बनेगा। इस तरह 50 आदमी का खाना 500 लोग खा सकेंगे।”

कालू, “वाह! यानी ₹50 वाली थाली मात्र ₹5 में पड़ेंगे। महाराज, आपने मेरे जीवन के लक्ष्य को बहुत ही आसान बना दिया।”

तभी रतन कालू को खोजते-खोजते वहाँ पहुँचता है।

रतन, “अरे कालू! तुम यहाँ बैठे हो। मैं तुम्हें होटल में खोज रहा था। पता चला कि तुम काम छोड़ चुके हो। ये लो तुम्हारी अमानत… ₹1050।”

कालू, “अरे चाचा! मैंने तो पहले ही कहा था कि ये पैसे आपको देने की जरूरत नहीं है।”

रतन, “अरे! ये तो तुम्हारी अमानत मेरे पास थी। वक्त पर तुमने मेरी इज्जत बचाई, यही काफी थी। फिर से एक बार धन्यवाद!”

कालू, “ठीक है चाचा, आपने पैसे बहुत समय पर दिए हैं। अब मैं अपने पास के ₹3000 जो ₹15,000 के बराबर है, उससे सस्ता होटल खोल सकूंगा।”

रतन, “ये तो बहुत अच्छी बात सोच रहे हो। तुमने मेरा बेटा बंकू ऐसे ही बैठा रहता है। उसे भी अपने साथ इस होटल में रख लो।”

कालू, “जी, जरूर चाचा। मुझे अभी कई ईमानदार साथियों की जरूरत पड़ेगी।”

देवराज, “ठीक है बेटा, अब मैं चलता हूँ। तुम अपनी इसी ईमानदारी और जज्बे को हमेशा बनाए रखना।”

कालू, “जी महाराज, प्रणाम!”

रतन, “मैं भी चलता हूँ, बेटा। कल से बंकू तुम्हारे होटल में काम करने आ जाएगा।”

कालू पैसों से जगन के होटल के बगल में ₹5 की थाली का होटल खोल देता है। पहले तो लोग ₹5 की थाली का बोर्ड देखकर इसे मजाक समझते हैं।

लेकिन जब होटल के अंदर खाना खाते हैं तो उन्हें आश्चर्य होता है कि ₹300 से ₹400 वाले खाने को वो मात्र ₹5 में कैसे खिला रहा है? लोग उसे बहुत धन्यवाद देते हैं।

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जगन का होटल बंद हो जाता है क्योंकि वही खाना ₹5 में कालू के होटल में उपलब्ध था। जगन कंगाल हो जाता है। एक दिन भीड़ में जगन खाना खाने आता है।

जगन, “भाई, आधा प्लेट खाना देना।”

बंकू, “आधा प्लेट क्यों, सेठ? पूरा प्लेट खाओ।”

जगन, “काहे का सेठ? आज के तारीख में मैं कंगाल हो चुका हूँ और मेरे पास तीन ही रुपए हैं।”

बंकू, “कोई बात नहीं, सेठ। मैं आपको पहचानता हूँ। आपका पैसा मैं दे दूंगा। आप महीनों यहाँ आकर खा सकते हो।”

जगन, “धन्यवाद मेरे बच्चे! पर मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।”

बंकू, “सेठ, मैं वही हूँ जो कुछ दिन पहले आपके यहाँ खाना खाने आया था और आपने मेरी माँ को पैसे के बदले मंगलसूत्र गिरवी रखने को कहा था।”

जगन, “मुझे माफ कर दो, बेटे। मैं अंधा था। मेरी आँखें तो आज खुली हैं।

भूखे लोगों के लिए ₹5 में थाली उपलब्ध करवाकर सचमुच तुम लोगों ने बेसहारों को एक सहारा दिया है। उनकी दुआएं सदा तुम्हारे साथ रहेंगी।”

कालू, “अरे मालिक! आप यहाँ?”

जगन, “मत कह मुझे मालिक। ये भी एक गाली जैसा लगता है। ₹5 की थाली वाले इस होटल में जो सुकून है, वो बड़े-बड़े होटलों में नहीं मिलेगी।”

कालू, “तो ठीक है, कल से आप भी आइए और मैनेजर की कुर्सी संभालिए।”

जगन, “तुम्हारा ये अहसान मैं ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा। मेरे बच्चे घर में भूखे हैं। तुमने मुझे काम देकर मुझे ही नहीं, मेरे परिवार को भीख मांगने से बचा लिया।”


दोस्तो ये Hindi Story आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!


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