लालची सेठ | Lalchi Seth | Hindi Kahani | Funny Story | Comedy Story in Hindi

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हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” लालची सेठ ” यह एक Comedy Story है। अगर आपको Hindi Stories, Funny Stories या Majedar Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।


माधवपुर में बंसी नाम का एक कंजूस मक्खीचूस नौजवान सेठ रहता था। उसकी कंजूसी के चर्चे दूर-दूर तक मशहूर थे।

उसकी कंजूसी के कारण उसकी पत्नी और बच्चे बेहद परेशान रहते थे।

बंसी, आज भी दोपहर के वक्त आराम से पड़ा-पड़ा खर्राटे लेकर सो रहा था। तभी उसकी पत्नी रज्जो ने आकर उसे जगा दिया।

बंसी, “क्या हुआ? इतने अच्छे-अच्छे सपने देख रहा था, क्यों जगा दिया मुझे?”

रज्जो, “दोपहर के 12 बज गए हैं। अभी तक तुम कुछ पकाने को लेकर नहीं लाए।

राजू को भूख लग रही है, आज दोपहर में कुछ खाने को बनेगा कि नहीं?”

बंसी, “अरे कल ही तो मैं भिंडी लेकर आया था। इतनी जल्दी खत्म भी हो गई?”

रज्जो, “बोल तो ऐसे रहे हो जैसे कि कल पांच किलो भिंडी लेकर आए हो तुम। जो भिंडी लेकर आए थे, उसमें से ज्यादा तो खराब निकल गई। और मत भूलो, राजू अब 12 साल का हो गया है।”

बंसी, “अरे! अगर 12 साल का हो गया है तो क्या 12 आदमियों का खाना खाएगा?”

रज्जो, “कुछ तो शर्म करो। एक ही बेटा है हमारा। मेरी तो समझ ही नहीं आती कि आखिर इतनी दौलत का क्या करेंगे आप?”

रज्जो, “अरे, अगर मुझे दौलत विरासत में मिली है, तो क्या मैं दौलत ऐसे ही लुटा दूं?

तुम्हें पता है पैसे कितनी मेहनत से कमाए जाते हैं? अब सुबह-सुबह मुझे लेक्चर मत दो, जाता हूँ बाजार।”

रज्जो, “सुबह नहीं, दोपहर बोलिए जी। और सुनो, जाकर कल की तरह खराब सब्जी मत उठा लाना।

सस्ते के चक्कर में तुम ये भी नहीं देखते कि कौन सी सब्जी खराब है और कौन सी नहीं? बस पैसे बचाकर उसे उठा लाते हो।”

बंसी, “अरे! जिसे तुम खराब कह रही हो, वो सब्जी खराब नहीं होती। बस थोड़े से दाग लगे होते हैं उसमें।

और भी तो बहुत से लोग ऐसी ही सब्जी खाते हैं, तो क्या वो बीमार पड़ जाते हैं?”

रज्जो, “हे भगवान! पता नहीं कौन सा दिन था जब मेरे पिताजी ने मेरी शादी आपके साथ की थी? एक आपके पिताजी थे, जो कितने दयालु थे?

उनके समय में कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं जाता था। और एक तुम हो, विकट की कंजूस। तुमने अपने पिताजी का एक भी लक्षण नहीं लिया।”

बंसी, “हाँ हाँ, जानता हूँ। मैं पिताजी की तरह बेवकूफ नहीं हूँ। पिताजी एक बेवकूफ इंसान थे जो अपनी दौलत गरीबों और भुखमरों में लुटाते रहते थे, पर मैं अकलमंद हूँ। मैं पैसे बहुत सोच-समझ कर खर्च करता हूँ।”

रज्जो, “ठीक है, अब मैं आपसे बहस नहीं करना चाहती। जल्दी बाजार जाइए और सब्जी लेकर आइए, राजू को भूख लगी है।”

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बंसी झोला लेकर बाजार की तरफ निकल गया।

बंसी, “पता नहीं मेरे बेटे को कितनी भूख लगती है? अब बताओ, कल रात के 10 बजे ही तो खाना खाया था और फिर भूख लगने लगी।

ये कोई तरीका हुआ? मेरी पत्नी ने मेरे बच्चे को बिगाड़कर रख दिया है।

मुझे पूरी उम्मीद, मेरे बाद मेरी पत्नी और मेरा बेटा मेरी सारी दौलत पानी की तरह बहा देंगे। पर मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगा।”

बंसी बड़बड़ाता हुआ जा ही रहा था कि तभी एक भिखारी बंसी की ओर लंगड़ाता हुआ आकर भीख मांगने लगा।

भिखारी, “भगवान के नाम पर कुछ दे दे, बेटा।”

बंसी ने देखा कि भिखारी के कटोरे में 10-10 के तीन-चार नोट पड़े हुए थे।

बंसी, “अरे! तुम्हारे पास तो अच्छे खासे पैसे हैं, फिर भी भीख मांग रहे हो?”

भिखारी, “ये कैसी बातें कर रहे हैं आप छोटे मालिक? अगर मेरे पास पैसे ही होते तो मैं भीख क्यों मांगता?”

बंसी, “अरे! ये कटोरे में ₹30-40 पड़े तो हैं, ये क्या कम है? तुम्हें पता है, मैं ₹30-40 में तीन-चार दिन चलता हूँ।”

भिखारी, “मैं आपको जानता हूँ, छोटे मालिक। आप इस गांव के बड़े मालिक सेठ अमीरचंद के बेटे हैं ना?

आपको पता है जब बड़े मालिक जिंदा थे, तब मुझे भीख मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ी?

वो हर महीने मेरे परिवार का खर्चा मुझे देते रहते थे। और एक आप हैं जो मेरी मदद करने के बजाय मुझे ताने दे रहे हैं।”

बंसी, “अबे ओह! अगर तुझे मेरे पिताजी की इतनी ही याद आ रही है तो जाकर तू भी उन्हीं के पास चला जा।

मैं पिताजी की तरह बेवकूफ नहीं हूँ। अगर पिताजी को लुटाने की आदत नहीं होती तो आज ये पूरे गांव की जमीन मेरी होती। अब मेरा टाइम खराब मत कर, चल निकल यहाँ से।”

इतना कहकर बंसी गुस्से से आगे बढ़ गया। भिखारी गुस्से से बंसी की ओर देखता हुआ वहाँ से चला गया।

बंसी, “ऐ सब्जीवाले! आलू कितने रुपए किलो हैं?”

सब्जी वाला, “ये ₹20 किलो है, छोटे मालिक।”

बंसी, “₹20 किलो… इतने महंगे? लेकिन कल शाम को तो तुमने मुझे ₹10 किलो बताए थे।”

सब्जी वाला, “वो बचे हुए आलू थे, छोटे मालिक। आधे से ज्यादा खराब थे वो। उन्हें हटाने के लिए आपको ₹10 किलो बताए थे।”

बंसी, “हाँ हाँ, मुझे वही आलू दे।”

सब्जी वाला, “लेकिन छोटे मालिक, उनमें से आधे से ज्यादा आलू तो खराब निकल आएँगे।”

बंसी, “अबे! तुझे इससे क्या फर्क पड़ता है?”

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सब्जी वाला, “ठीक है मालिक, जैसी आपकी मर्जी।”

इतना कहकर ठेले वाला नीचे से आलू निकाल लेता है।

तभी बंसी बोलता है, “रुक रुक, ये तो तूने पूछा ही नहीं कि मुझे आलू कितने चाहिए?”

सब्जी वाला, “कितने चाहिए, छोटे मालिक?”

बंसी, “250 ग्राम।”

सब्जी वाला, “क्या… सिर्फ 250 ग्राम? छोटे मालिक, 250 ग्राम में मुश्किल से तीन आलू ही चढ़ेंगे और उसमें से आधे से ज्यादा खराब निकलेंगे।”

बंसी, “पागल हो गया है क्या? मैं पूरे दिन ₹10 की सब्जी खरीद कर अपने घर के लिए ले जाता हूँ।

मुझे लेक्चर मत दे, चल जल्दी से जितना मैं कहता हूँ, बस उतना ही निकाल।”

बंसी की बात पर सब्जी वाले को गुस्सा तो बहुत आता है लेकिन वो गुस्सा दबाकर रह जाता है।

कुछ देर के बाद बंसी खराब सब्जियाँ लेकर अपने घर की ओर चला गया। खराब सब्जी देखकर उसकी पत्नी रज्जो का पूरी तरह से मूड खराब हो गया।

रज्जो, “ये क्या उठा कर ले आए हो? अब तो तुम्हारी कंजूसी मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही, तुमने तो हद ही कर दी।”

बंसी, “पागल हो गई हो क्या? पूरे ₹10 की सब्जी है। इससे तेल भी कम खर्च होगा।”

रज्जो, “₹10 की सब्जी क्यों उठा लाए? ₹10 का चाकू खरीदकर हम दोनों के गले काट दो। तुम अकेले ही रहना, तुम्हारे बहुत पैसे बचेंगे।”

बंसी, “चाकू खरीदने के लिए भी पैसे क्यों खर्च करूँ? रसोई में पड़ा तो है ना?”

रज्जो, “हे भगवान! मैं इस आदमी का क्या करूँ? जाओ नहीं बनाऊंगी सब्जी, मैं भी भूखी रहूंगी और तुम्हारा बेटा भी भूखा रहेगा।”

बंसी, “चलो अच्छा है, कम से कम 1 दिन का खाना तो बचेगा।”

बंसी फिर से आराम की नींद सो गया। कुछ दिन ऐसे ही और बीत गए, लेकिन बंसी की कंजूसी दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही थी। एक दिन रज्जो बंसी से बोली,

रज्जो, “देखिए जी, राजू के पास जितने भी कपड़े थे, सब फट चुके हैं। उसके लिए कुछ नए कपड़े ले आइए।”

बंसी, “पागल हो क्या? उसके लिए पैसे खर्च करने की क्या जरूरत है?

घर में इतनी चादर पड़ी हुई है, उन्हें काट कर दर्जी को दे आओ। नहीं नहीं, दर्जी को मत देना… वो पैसे ले लेगा। तुम तो सिलाई जानती हो ना, खुद सिल लो।”

रज्जो, “पागल हो गए हो क्या? इतने बड़े सेठ के बेटे होकर ऐसी बात करते हैं?

हमारा बेटा राजू क्या घर की पुरानी फटी हुई चादरों के बने कपड़े पहनेगा? आपको नहीं लगता कि उससे कितना मजाक बनेगा उसका?”

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बंसी, “कोई मजाक नहीं बनेगा। मुझे देखो, पिछले 3 साल से यही बनियान और यही पजामा पहना हुआ हूँ।

किसी की हिम्मत है कि मुझे कुछ कहे। और राजू के कपड़े मैंने पिछले साल ही तो बनवाए थे।”

रज्जो,” राजू की उम्र बढ़ती हुई है। तुमने जो कपड़े बनवाए थे वो फट भी गए हैं और छोटे भी हो गए हैं। मत भूलो कि राजू अभी बच्चा है।”

बंसी, “नहीं नहीं, मैं और ज्यादा पैसे खर्च नहीं कर सकता।”

बंसी की बात सुनकर रज्जो की आँखों से आंसू आ गए।

रज्जो, “मुझे पूरी उम्मीद है कि कल को राजू और मैं बीमार पड़ गई तो तुम हमारी दवाई के लिए भी ₹1 नहीं दोगे।”

बंसी, “अरे! पहले के लोग जब बीमार पड़ते थे तो क्या दवाई से ठीक होते थे? जंगल की जड़ी-बूटियाँ खाकर ही मुफ्त में ठीक हो जाते थे।

ये तो आजकल के डॉक्टर के चोचले हैं पैसे बनाने के लिए। मैं सब जानता हूँ, मुझसे ज्यादा अक्लमंद कोई नहीं है।”

रज्जो, “बस बहुत हुआ, अब इससे ज्यादा मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकती। पत्नी होने के नाते तुम्हारी जितनी सेवा करनी थी मैंने कर ली।

मैं और मेरा बेटा इस घर में अब एक पल नहीं रह सकते। जा रही हूँ मैं अपने बेटे को लेकर। पड़े रहो अकेले इस घर में।”

बंसी, “अरे! जा रही हो तो जाओ।”

रज्जो अपने बेटे राजू को लेकर घर से चली गई और बंसी आराम से लेट गया।

बंसी, “अच्छा हुआ चले गए दोनों। रोज़ के हिसाब से मेरे इनके खाने पर ही करीब ₹50 खर्च होते थे।

25 के हिसाब से महीने में बनते हैं ₹750 और ₹750 के हिसाब से साल में बनते हैं ₹9000। बताओ हर साल इनके ऊपर ₹9000 का खर्चा करना पड़ता था भई।”

रज्जो गुस्से से जंगल के रास्ते से राजू को लेकर चली जा रही थी तभी राजू का पैर फिसल गया और राजू गिर गया।

रज्जो, “चोट तो नहीं आई, बेटा?”

राजू, “नहीं माँ।”

रज्जो, “अरे! तुम्हारे पैरों में से तो हल्का-हल्का खून निकल रहा है। चलो वो सामने एक पेड़ है, वहाँ बैठकर आराम कर लेते हैं फिर चलेंगे।”

रज्जो राजू को लेकर उस पेड़ के नीचे बैठी ही थी कि तभी वहाँ एक साधू भिक्षा माँगने आ गए।

साधू, “ईश्वर के नाम पर कुछ दे दे, बेटी।”

रज्जो, “क्या बाबा आप भी… किससे मांग रहे हो? जिसका पति खुद उसे एक पैसा भी नहीं देता।”

साधू रज्जो को गौर से देखने लगा।

साधू, “मैं तुझे जानता हूँ, तू सेठ अमीरचंद की बहू है ना?”

रज्जो, “अरे! आप तो मुझे सचमुच जानते हैं। आपने सही पहचाना।”

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साधु, “वो बहुत अच्छे व्यक्ति थे। वो हर महीने साधुओं को जलपान कराया करते थे और उनकी खूब सेवा किया करते थे।”

रज्जो, “हाँ, लेकिन उनके इस दुनिया से जाने के बाद उनके बेटे ने इस परंपरा को तोड़ दिया।

वो दान देने में बहुत ज्यादा मशहूर थे और उनका बेटा कंजूसी में। वो भी इतना कंजूस कि इतनी दौलत होने के बाद भी अपने बेटे के लिए कपड़ा तक नहीं बनवा सकता।”

साधू, “लगता है तुम अपने पति से बहुत ज्यादा परेशान हो। वैसे मैंने उसकी कंजूसी के चर्चे सुने हैं।

सिर्फ तुम ही नहीं, बल्कि पूरा गांव उसकी कंजूसी से परेशान है। जाओ बेटी घर जाओ, कल से तुम्हारा पति सुधर जायेगा।”

रज्जो, “सच में बाबा?”

साधु, “हाँ, सच में।”

साधु के कहने पर रज्जो वापस अपने पति के घर चली गयी।

बंसी अभी भी सो रहा था। रज्जो भी राजू के साथ सो गई। सुबह के वक्त किसी ने बंसी के घर का दरवाजा खटखटाया।

रज्जो ने दरवाजा खोल दिया। मगर सामने खड़े हुए व्यक्ति को देखकर रज्जो बुरी तरह हैरान रह गई।

उसने देखा दरवाजे पर उसके ही पति का हम शक्ल खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा था।

रज्जो, “दैया रे दैया, आप तो अंदर सो रहे थे। क्या एक ही रात में कंजूसी के साथ-साथ जादूगरी भी सीख ली तुमने?”

चंदू, “मुझे अंदर आने के लिए नहीं कहोगी, भाभी?

रज्जो, “भाभी..? पर मेरा तो कोई देवर नहीं है। “

चंदू, “पहले मुझे अंदर तो आने दो, उसके बाद बैठ कर बात करते हैं।”

उस व्यक्ति के कहने पर जो वहाँ से हट गई। बंसी सो रहा था।

रज्जो, “जुड़वां तो मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन तुम तो हूबहू बिलकुल मेरे पति की शक्ल के हो।”

व्यक्ति, “मैं चंदू हूँ, भाभी। मैं आपका देवर हूँ और बंसी का जुड़वा भाई।”

इतना कहकर चंदू ने बंसी को सोते से उठा दिया।

बंसी, “अरे! तुम तो अपने घर चली गई थी, फिर वापस क्यों आ गई?”

चंदू, “आँखे खोलो भैया, मैं हूँ तुम्हारा जुड़वां भाई।”

अपने घर में किसी आदमी की आवाज सुनकर बंसी उठकर बैठ गया। मगर सामने अपने हम शक्ल को देख बुरी तरह से हैरान होकर बोला।

बंसी, “कौन… कौन है तू?”

चंदू, “तुम्हारा जुड़वां भाई हूं।”

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बंसी, “मेरा जुड़वा भाई… पागल हो गया है क्या ? मैं अपने पिताजी की इकलौती संतान हूँ। मेरा कोई भाई नहीं है।”

चंदू, “नहीं भैया, आपको कोई गलतफहमी हुई है। पिताजी ने कभी आपको इस बारे में बताया नहीं।

पिताजी ने मुझे बचपन से ही यहाँ से अलग रखा था, पर कुछ दिनों पहले ही मुझे पता चला कि पिताजी अपनी सारी जायदाद मेरे नाम कर गए, इसलिए मैं तुरंत दौड़ा चला आया यहाँ।”

बंसी, “तेरा दिमाग तो ठीक है। सारी दौलत मेरी है। तू जरूर कोई बहुरुपिया है, जो मेरी दौलत लूटने आया है।”

चंदू, “ऐसा नहीं है बंसी भईया, मेरे पास जायदाद के सारे कागजात हैं।”

चंदू ने अपने बैग से कुछ कागजात निकालकर बंसी के सामने रख दिए।

चंदू, “ये देखिए, इसमें इस वसीयत नामे में पिताजी के हस्ताक्षर हैं। पिताजी बहुत ज्यादा दयालु थे बंसी भईया, और मैं भी उन्हीं पर गया हूँ।

अब मैं ये सारी दौलत सारे गांव में बांट दूंगा। पिताजी की आत्मा को शांति मिलेगी।”

बंसी, “क्या खाक शांति मिलेगी? मान ना मान, मैं तेरा मेहमान। मैं तुझे जानता तक नहीं। और ये कागज…ये फर्जी हैं।”

चंदू और बंसी आपस में बुरी तरह से झगड़ा करने लगे। बंसी मानने को तैयार ही नहीं था कि चंदू उसका भाई है।

यह सारा नजारा हैरत से राजू और रज्जो देख रहे थे। विवाद इतनी बड़ी थी कि उन दोनों को गांव के मुखिया के पास जाना पड़ा।

सारा गांव वहाँ पर मौजूद था और उन दोनों भाइयों को हैरत से देख रहा था। मुखिया ने वसीयत नाम देखकर बंसी से कहा,

मुखिया, “वसीयत में तेरे पिताजी के यानी सेठ अमीरचंद के हस्ताक्षर हैं और इसकी शक्ल भी तुझसे मिलती है। कानून के मुताबिक यही सारी संपत्ति का मालिक है।”

बंसी,”ये कैसी बाते कर रहे है आप मुखिया जी?”

मुखिया, “अरे! मैं कोई अपनी तरफ से नहीं कह रहा हूँ, बंसी। इसके पास सारे कागजात हैं और वो सब असली हैं।

समझे? अब इसकी मर्जी है कि यह उस दौलत को दान करे या अपने पास रखे या फिर तुम्हें दे दे।”

चंदू, “मुखिया जी, आप तो मेरे पिताजी को जानते थे। वो कितने दयालु थे।

जब वो जिन्दा थे तब गांव में कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं सोता था और मेरे भाई की कंजूसी के बारे में तो सारा गांव जानता है।

ये तो अपनी पत्नी और बच्चे को भी भूखा रखता है। वैसे तो मैं सारी दौलत इन्हें दे देता, लेकिन इसकी कंजूसी के कारण मैं ऐसा नहीं कर सकता।

मुझे पूरी उम्मीद है कि पिताजी की आत्मा को बहुत तकलीफ होती होगी, इसलिए मैं सारी दौलत और जायदाद गरीबों में दान कर दूंगा।”

चंदू की बात सुनकर बंसी चंदू के कदमों में गिरकर बोला,

बंसी, “ऐसा मत करो भाई। अगर तुम सारी जायदाद और सब कुछ दान कर दोगे तो मेरी पत्नी और बच्चे का क्या होगा?”

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चंदू, “उनको तो वैसे भी तुमने बहुत परेशान रखा हुआ है। वो कहीं ना कहीं गुज़ारा कर लेंगे।”

बंसी को अब अपनी कंजूसी का एहसास हो गया और वह दिल ही दिल में बहुत ज्यादा शर्मिंदा होकर बोला,

बंसी, “अगर तुम ये जायदाद मेरे पास ही रहने दोगे तो मैं वादा करता हूँ कि मैं भी पिताजी की तरह दयावान बनूँगा और अपनी कंजूसी की आदत को छोड़ दूंगा।”

बंसी ने इतना बोला ही था कि तभी एक रोशनी हुई और चंदू के चेहरे पर चमक आई। और देखते ही देखते चंदू उसी साधू में परिवर्तित हो गया, जिसे बंसी की पत्नी ने देखा था।

ये देखकर बंसी की पत्नी हैरान हो गई।

साधू, “तेरी आँखें बता रही हैं कि तुझे अपनी गलती का पछतावा है। यह सारा नाटक मैंने तुझे सुधारने के लिए किया था ताकि तेरी आँखें खुल जाएँ।”

रज्जो तुरंत साधू के पैरों पर गिर कर बोली,

रज्जो, “साधु महाराज, मुझे नहीं मालूम था कि आप इतने पहुंचे हुए साधु हैं।”

साधु, “मैं कोई मामूली साधु नहीं हूँ, बेटी। बल्कि मायावी साधु हूँ। तेरी आँखों की उदासी मुझसे उस वक्त देखी नहीं गई।”

बंसी, “मैं वादा करता हूँ साधू महाराज कि अब मैं कभी भी कंजूसी नहीं करूँगा हां, और अपने पिताजी की तरह बनकर दिखाऊंगा।”

साधु की बात सुनकर साधु मुस्कुराते हुए वहाँ से गायब हो गया और उस दिन के बाद से बंसी अपने पिताजी की तरह दयावान हो गया और उसकी कंजूसी की आदत खत्म हो गई।


दोस्तो ये Moral Story आपको कैसी लगी, नीचे Comment में हमें जरूर बताइएगा। कहानी को पूरा पढ़ने के लिए शुक्रिया!


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