हेलो दोस्तो ! कहानी की इस नई Series में आप सभी का स्वागत है। आज की इस कहानी का नाम है – ” मेहमान नवाज़ी ” यह एक Hindi Story है। अगर आपको Hindi Stories, Hindi Kahani या Achhi Achhi Kahaniyan पढ़ने का शौक है तो इस कहानी को पूरा जरूर पढ़ें।
उल्लास नगर में रहने वाला शेख अब्दुल करीम थोड़ा सनकी और अंधविश्वासी इंसान है। वो अपनी पत्नी सलमा और 8 साल की बेटी रुकसाना के साथ रहता है।
एक सुबह शेख की पत्नी सलमा शेख से बोली, “शेख जी, आपको आज पूरे 2 दिन हो गए हैं खाना खाए हुए। अब तो खाना खा लीजिए।”
शेख, “कैसे खा लूँ? मेहमान कहाँ हैं?”
सलमा, “अब ये रोज़-रोज़ मेहमान कहाँ से आएँगे, शेख जी?”
शेख, “जब तक मेहमान नहीं आएँगे, तब तक खाना कैसे खाऊंगा? जा पहले मेहमान बुला कर ला, उसके बाद ही खाना खाऊंगा।”
सलमा गांव में निकल पड़ती है मेहमान ढूंढने। गांव के चौक पर उसे एक अजनबी इंसान दिखता है।
सलमा, “भाई जी, आप कौन हैं? आपको तो कभी इस गांव में नहीं देखा।”
अजनबी, “बहन, मैं तो झुमरू के घर कुछ काम से जा रहा हूँ।”
सलमा, “इसका मतलब आप मेहमान हैं।”
अजनबी, “नहीं बहन, मैं मेहमान नहीं हूँ। मैं तो एक राजगीर मिस्त्री हूँ।”
सलमा, “आप इस गांव के नहीं हैं, दूसरे गांव से आए हैं और झुमरू जी के घर जा रहे हैं, तो आप इस गांव के मेहमान ही हुए ना?”
अजनबी, “बहन, तुम क्या बोल रही हो? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।”
सलमा, “भाई जी, मुझे आपकी एक मदद चाहिए। क्या आप थोड़ी देर के लिए मेरे घर मेहमान बनकर चलेंगे?”
अजनबी, “मेहमान बनकर क्यों चलूँ मैं तुम्हारे घर?”
सलमा, “भाई जी, मैं बड़ी मुश्किल में हूँ। मेरे पति ने 2 दिन से कुछ नहीं खाया है और जब तक घर में कोई मेहमान नहीं आएगा ना, वो कुछ खाएंगे भी नहीं।”
अजनबी, “अरे बहन, ये तो बड़ी अजीब बात कर रही हो तुम।”
सलमा, “भाई जी, आप वो सब छोड़ दीजिए। आप बस थोड़ी देर के लिए मेरे घर मेहमान बनकर चलिए।
और वैसे भी आपने मुझे बहन कहा है ना? तो एक भाई को बहन के घर जाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।”
अजनबी सोचता है कि ये कैसी अजीब औरत है? फिर वो सलमा की मदद के लिए उसके घर जाने को तैयार हो जाता है और सलमा के साथ उसके घर चला जाता है।
सलमा, “शेख जी, देखिए मेहमान आए हैं।”
शेख, “मेहमान आ गए? बुलाओ बुलाओ, कहाँ हैं? अरे! ये कैसा मेहमान है? इसके हाथ में तो ना फल है ना मिठाई।”
मेहमान नवाज़ी | MEHAMAAN NAWAJI | Hindi Kahani | Bedtime Stories | Hindi Stories | Kahaniyan
सलमा, “शेख जी, अब ज्यादा नखरे मत दिखाओ। जैसा भी है, यही मेहमान है। इसी से काम चला लो। मैं तुम्हारे लिए रोज़-रोज़ मेहमान ढूंढ-ढूंढकर थक चुकी हूँ।”
शेख, “अच्छा अच्छा ठीक है, अब नाराज मत हो। जा जल्दी से कुछ खाने के लिए ले आ, बड़ी भूख लगी है।”
सलमा, “अभी लेकर आती हूँ खाना, वो तो कब से बना रखा है?”
सलमा शेख के लिए थाली लेकर आती है।
शेख, “अरे मूर्ख! मेहमान के लिए भी तो थाली लेकर आ।”
सलमा, “शेख जी, क्या आपने मुझे अपनी तरह समझा है? मैं दोनों के लिए लाई हूँ।”
अजनबी, “नहीं नहीं, मुझे नहीं खाना है। मुझे बहुत जरूरी काम से जाना है, इसलिए मैं चलता हूँ।”
शेख, “अरे मेहमान! यह क्या बात होती है? बैठो तो, मैं खाना तो खा लूँ।”
अजनबी, “मुझे बहुत जरूरी काम है। आप अपना खाना खाइए, मैं जाता हूँ।”
शेख, “ठीक है। अब तुम्हें ज्यादा जरूरी काम है, तो तुम जाओ।”
मेहमान चला जाता है और शेख पेट भरकर खाना खाता है।
अगले दिन सुबह…
सलमा, “मैं तो थक चुकी हूँ आपके लिए मेहमान लाकर। अब रोज़-रोज़ मेहमान ढूंढना कोई आसान बात है क्या?”
शेख, “बात तो तेरी सही है सलमा, लेकिन बिना मेहमानों के काम भी तो नहीं चलेगा।”
सलमा, “एक काम कीजिए, आप हलवाई की दुकान पर चले जाइए और वहाँ से शक्कर से बने मेहमान खरीद लाइए।”
शेख, “क्या बोल रही है… शक्कर के बने मेहमान?”
सलमा, “हां, हलवाई की दुकान पर शक्कर के बने मेहमान मिलते हैं, आप उन्हें खरीद लाइए।
जब आपको सचमुच के मेहमान ना मिले, तो उन शक्कर के बने मेहमानों को रखकर खाना खा लेना।”
शेख, “अरे! तू तो बड़ी समझदार है। ये तूने बिल्कुल सही बात कही है। मैं अभी हलवाई की दुकान पर जाता हूँ और शक्कर के बने मेहमान लेकर आता हूँ।”
शेख शक्कर के बने मेहमान लाने निकल पड़ता है। रास्ते में उसे सखाराम अपने खेतों में बैठकर खाना खाते हुए दिखता है।
सखाराम, “अरे शेख जी! आई आई।”
शेख, “क्या कर रहा है भाई सखाराम?”
सखाराम, “कुछ नहीं शेख जी, खाना खाने जा रहा हूँ। आओ, तुम भी बैठो और मेरे साथ खाना खाओ।”
शेख, “मैं क्यों खाना खाऊं? क्या तू मेरा मेहमान है?”
सखाराम, “मेहमान… कैसा मेहमान?”
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शेख, “देख भाई, या तो तू मेरा मेहमान बन या मुझे अपना मेहमान बना ले, तो ही मैं तेरा खाना खाऊंगा।”
सखाराम, “ये क्या बात होती है भला?”
शेख, “बात तो सारी यही है। या तो तू मुझे अपना बहनोई बना ले या अपना मेहमान बना ले।”
सखाराम, “शेख, तू पागल तो नहीं हो गया है? एक तो मैं तुझे खाने के लिए बुला रहा हूँ और दूसरा तू मुझसे कह रहा है कि मैं तुझे अपना बहनोई भी बना लूँ।”
शेख, “हाँ, अब जाकर तू मेरी बात समझा।”
सखाराम, “हाँ, मैं समझ गया हूँ कि तू पागल हो चुका है।”
सखाराम शेख की पिटाई कर देता है। थोड़ा आगे जाकर शेख को करीम अपने दरवाजे पर खाना खाते हुए दिखता है।
शेख, “क्यों भाई करीम, मुर्गा खा रहा है वो भी अकेले अकेले?”
करीम, “अरे! ऐसा कुछ नहीं शेख भाई। आ जाओ, तुम भी खा लो मेरे साथ।”
शेख, “मुर्गा तो मैं खा लूँ, मुझे पसंद भी है। लेकिन एक दिक्कत है।”
करीम, “क्या दिक्कत है भाई, बताओ?”
शेख, “दिक्कत ये है कि मैं तेरा मेहमान नहीं हूँ, इसीलिए मैं यह खाना नहीं खा सकता।”
करीम, “मेहमान नहीं है?”
शेख, “हाँ, अगर तू चाहता है कि मैं तेरा खाना खाऊं, तो तू मुझे अपना मेहमान बना ले।”
करीम, “ऐसे कैसे मेहमान बना लूँ तुझे?”
शेख, “फिर मेहमान नहीं बनाएगा? तो एक काम कर, मुझे अपना बहनोई बना ले।”
करीम, “शेख, जबान संभाल के बोल तू। क्या बकवास कर रहा है?”
शेख, “भाई सच तो कह रहा हूँ कि मैं तेरा खाना तभी खा सकता हूँ जब तू मुझे अपना मेहमान बना ले, नहीं तो तू मुझे अपना बहनोई बना ले।”
करीम, “साले, एक तो तुझे खाना भी खिलाऊं, ऊपर से तुझे बहनोई बनाऊं? अब मैं तुझे अपना बहनोई बनाता हूँ।”
करीम शेख की पिटाई करता है। बेचारा शेख फिर से पिटकर किसी तरह वहाँ से भाग जाता है और किसी तरह गांव की राशन की दुकान पर पहुँचता है।
शेख, “सेठ जी, शक्कर के बने मेहमान हैं क्या?”
सेठ, “नहीं शेख जी, वो तो तुम्हें हलवाई की दुकान पर मिलेंगे।”
शेख, “फिर तुम्हारी दुकान पर क्या मिलता है, घंटा?”
सेठ, “चल भाग यहाँ से, नहीं तो तू पिटेगा मेरे हाथों से।”
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शेख, “ठीक है ठीक है, मैं उधर ही जाता हूँ।”
हलवाई की दुकान पर पहुँचकर…
शेख, “सेठ जी, क्या शक्कर के मेहमान मिलेंगे?”
सेठ, “हाँ, जरूर मिलेंगे। कितने चाहिए?”
शेख, “अरे! मेहमान दिए कैसे, ये तो बताओ?”
सेठ, “20 का एक है।”
शेख, “एक काम करो, तीन मेहमान दे दो मुझे।”
शेख शक्कर के बने मेहमान लेकर घर की तरफ निकलता है। दूसरी तरफ सलमा के भाई, भाभी और भाई का साला सलमा के घर आने की तैयारी कर रहे होते हैं।
हुसैन, “रज्जो, जल्दी कर, हमें 11:00 बजे की बस पकड़नी है।”
रज्जो, “जी, मैं तो तैयार हूँ। लेकिन अली कहाँ है?”
अली, “अरे, मैं तो कब से तैयार हूँ, वो भी चमकते हुए सफेद कपड़े पहनकर।”
रज्जो, “चलो, अब जल्दी करो। शेख भाई के घर दावत खाने।”
रज्जू, हुसैन, और अली तीनों सलमा के घर आने के लिए निकल पड़ते हैं और दूसरी तरफ सलमा के घर पर—
सलमा, “शेख जी, मैं शक्कर के मेहमान ले आई हूँ।”
शेख, “ये तो तुमने बहुत अच्छा काम किया। दिखाओ तो ज़रा शक्कर के मेहमान।”
(पैकेट से शक्कर की बनी हुई मिठाई निकालकर)
सलमा, “अरे, ये तो बड़े अच्छे हैं और इनमें तो एक शक्कर का मेहमान औरत के आकार का भी है।”
शेख, “अब तू मेहमान ही देखती रहेगी या मुझे कुछ खाने को भी देगी?”
सलमा, “देखो, घर में सब्जी नहीं है। तुम बाज़ार जाओ और सब्जी लेकर आओ।”
शेख, “मैं अभी जाता हूँ। तू तब तक मसाला तैयार करके रख और रोटियाँ बनाकर रख।”
शेख बाज़ार चला जाता है।
दूसरी तरफ, सलमा के भाई, भाभी, और उनका साला शेख के घर आ जाते हैं।
सलमा, “आज हमारे घर ईद का चाँद आया है!”
भाभी, “सही कह रही हो, तुम्हारा भाई हमें यहाँ लेकर कभी नहीं आता।”
सलमा, “अब आ गए हो, तो बैठो। मैं तुम सबके लिए पानी लेकर आती हूँ।”
भाई, “पानी बाद में पीएंगे। पहले ये बताओ शेख भाई कहाँ हैं?”
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सलमा, “वो तो बाज़ार सब्जी लेने गए हैं, आते ही होंगे।”
तभी सलमा की बेटी रुखसाना स्कूल से वापस आती है और सबको सलाम करके घर के अंदर चली जाती है। उसकी नजर मेज़ पर रखे शक्कर के मेहमानों पर पड़ती है।
रुखसाना, “अम्मी, मेहमान कब आए?”
सलमा, “अभी आए हैं। ये तुम्हारे बड़े मामू, मामी और मामी के भाई हैं।”
रुखसाना, “अब वो सब छोड़ो, मुझे बहुत भूख लगी है। मैं इनमें से एक मेहमान खा लेती हूँ।”
सलमा, “नहीं, नहीं! अभी मत खा। तेरे अब्बू को आने दे, फिर हम सब मिलकर खाएंगे।”
रुखसाना, “अम्मी, एक मेहमान तो खाने दो! जो ज्यादा सफेद है ना, वो मुझे पसंद आ रहा है। मैं उसी को खाऊँगी।”
रुखसाना के शक्कर के बने मेहमानों को खाने की बात पर आँगन में बैठे सलमा के भाई, भाभी, और अली को लगता है कि रुखसाना उन्हें खाने की बात कर रही है।
हुसैन, “भाईजान, ये बच्ची मुझे खाने की बात कर रही है। मैंने सफेद कपड़े पहन रखे हैं।”
भाभी, “अजी सुनते हो, तुम्हारी बहन मुझे खाने की बात कर रही है। ये कैसा खानदान है तुम्हारा!”
(इस दौरान सभी बाहर से जाने की तैयारी करने लगते हैं)
तभी शेख घर के अंदर आता है और सीधा कमरे में चला जाता है। उसकी नज़र हुसैन पर पड़ती है।
शेख, “हुसैन भाईजान! रुकिए, कहाँ जा रहे हैं?”
हुसैन, “भागो, वो हमारे पीछे आ गए हैं।”
शेख, “रुकिए, क्या बात है भाईजान? आप लोग ऐसे क्यों भाग रहे हैं?”
हुसैन, “कुछ नहीं, हमें एक बहुत जरूरी काम याद आ गया है, इसलिए हमें वापस जाना होगा।”
शेख, “कैसा काम? और भाभी की हालत तो देखो।”
सलमा, “भाईजान, पहले अंदर आओ और आराम से बताओ कि बात क्या है।”
हुसैन और रज्जो सारी बात बताते हैं, उनकी बात सुनकर सलमा और शेख हँसने लगते हैं।
सलमा, “अरे भाईजान! हम तो शक्कर के मेहमानों को खाने की बात कर रहे थे!”
हुसैन, “शक्कर के मेहमान?”
शेख, “हाँ भाईजान, शक्कर के मेहमान। किसी ने नुस्खा बताया था कि अगर मैं एक महीने तक मेहमानों के आने पर ही खाना खाऊँ, तो मुझे नौकरी मिल जाएगी।
बस, इसीलिए रोज़ मेहमानों का इंतज़ार करता हूँ। सलमा ने मुझे ये शक्कर के मेहमानों का नुस्खा दिया था।”
हुसैन और रज्जो सारा माजरा समझकर खूब हँसते हैं और शेख को अपनी गलती समझ आ जाती है।
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